फ्री बस और मेट्रो ट्रेवल: केजरीवाल के इस फैसले की एक बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया

वोट तो आएंगे. क्रांति भी आ सकती है.

पंजाब में एक शब्द इस्तेमाल करते हैं गेड़ी मारना. यानी यूं ही घूमकर आना. हमारे कानपुर में कहते थे, लौंडे लोफरई करने गए हैं. लोफर अंग्रेजी का शब्द है. इसका अर्थ है घूमने वाला. अंग्रेजी में ठीक-ठीक शाब्दिक अर्थ है: वो व्यक्ति जो बाकी (जरूरी) काम छोड़कर यूं ही खाली समय बिताना पसंद करते हैं.

मगर ये सुविधा केवल पुरुष को है. कि वो बाहर जाए और कुछ न करे. बैठा है तो बैठा रहे. बीड़ी पिए. गप्पें मारे. घर की महिलाएं कभी कहती नहीं दिखेंगी कि शाम हो गई है जरा टहल के आते हैं.

महिला के घर से बाहर निकलने की हमेशा वजह होती है. जैसे नौकरी पर जान या वापस आना. बच्चे को टहलाने ले जाना. सामान लाने जाना. किसी और के घर जाना. वगैरह. लोफरई औरत का काम नहीं है. युवा लड़कियां अगर मौज-मस्ती के लिए निकलेंगी भी तो या तो सड़क का इस्तेमाल करने के बाद किसी बंद जगह में चली जाएंगी. वो गाड़ी की छत पर चखना और बियर लेकर नहीं बैठेंगी.

शहर का पुरुषवादी व्याकरण

पब्लिक स्पेस, मूलतः 'सड़क' के पुरुषों और औरतों के लिए अलग-अलग मायने हैं. पुरुषों के लिए ये 'ट्रांजिट' का साधन होने के अलावा भी समय बिताने की जगह हो सकती है. महिलाओं के लिए सड़कों और रास्तों का काम केवल 'ट्रांजिट' यानी आने-जाने की सुविधा देना है.

ज़ाहिर है, औरतें इसीलिए सड़क और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में कम दिखती हैं. सड़क पर कम औरतें और उनके साथ होने वाला यौन शोषण एक साइकल जैसा है: औरतों को यौन शोषण का डर है क्योंकि सड़क पर पुरुष उनसे ज्यादा हैं. और सड़क पर पुरुष इसीलिए ज्यादा हैं क्योंकि औरतें यौन शोषण के डर से सड़कों पर कम निकलती हैं.

man-on-street_060619070331.jpgपुरुष सड़कों पर यूं ही बैठ सकते हैं, महिलाएं नहीं.

शहर का पुरुषवादी व्याकरण केवल पब्लिक ट्रांसपोर्ट में ही नहीं, वाहन रखने में भी दिखता है. चूंकि घर के भाई या पिता लड़की को हमेशा 'छोड़' आते हैं, वो वाहन चलाना सीखे, ऐसी हमारे घरों में जरूरत नहीं दिखती. हमारी सोच है घर के मालिक और वाहन का मालिक एक ही होना चाहए. ऐसे में वाहन का काम महज वाहन होना नहीं होता. बल्कि सत्ता का पर्याय होता है. गाड़ी पापा चलाएंगे क्योंकि वो बड़े हैं. मगर असल में पापा ही गाड़ी क्यों चलाते हैं:

1. क्योंकि गाड़ी पापा की तरफ से परिवार को तोहफा है. वो पापा की ही कमाई से आई है. इसलिए अब पापा, पत्नी और बेटी को उसमें लेकर जा सकते हैं. क्योंकि पापा ही परिवार के रक्षक भी हैं.

2. क्योंकि बच्चे, खासकर लड़की (बेटी या पत्नी) के गाड़ी चलाने से ये सत्ता डाइल्यूट होती है. अब पिता या पति को रक्षक होने की जरूरत नहीं क्योंकि गाड़ी उनकी रक्षा कर सकती हैं. इस सत्ता का हाथ से फिसलना पुरुष (कोई एक पुरुष नहीं, बल्कि पुरुष होने का कॉन्सेप्ट) को स्वीकार्य नहीं होता.

इसलिए औरतों की ड्राइविंग को लेकर तमाम चुटकुले बने हुए हैं. कि वे बैक नहीं कर पातीं. या बीच सड़क में ज्यादा ट्रैफिक देखकर कन्फ्यूज हो जाती हैं. या वो इतनी घरेलू हैं कि टेक्निकल चीजें याद रखना उनके बस की नहीं. ये बताना जरूरी नहीं कि इन चुटकुलों की जड़, पुरुष के भीतर पैठा डर है. रक्षक का स्टेटस छिनने और पौरुष के हलका पड़ने का.

इसलिए सड़क पर लड़कियां पैदल या पब्लिक ट्रांसपोर्ट में तो कम हैं ही. अपने वाहनों को लेकर भी कम ही चल रही हैं.

शहर और औरतों का शरीर

जितनी लड़कियां शहर में दिखती हैं, केवल 'ट्रांजिट' के अपने कर्तव्य को निभाते हुए, वो भी पुरुष से बिलकुल अलग दिखती हैं. सर झुकाकर जल्दी-जल्दी चलती हुईं. सड़क और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में औरत के दिमाग में बस एक ही चीज होती है कि वो अपने गंतव्य तक कितनी जल्दी पहुंच जाएं.

दिल्ली शहर में देखें. लड़कियां अगर बसों या मेट्रो में अकेली हैं तो लगातार अपने फोन में ही देखती रहेंगी. इसका कोई ठीक-ठीक डाटा नहीं है. इसलिए इस आर्टिकल को पढ़ रहे पुरुष इस पॉइंट को इग्नोर भी कर सकते हैं. मगर इसे पढ़ रही लड़कियां शायद इस बात से सहमत होंगी कि वो जनरल कंपार्टमेंट में नजरें उठाना पसंद नहीं करतीं. क्योंकि समाज उन्हें इतनी छूट नहीं देता कि वो किसी लड़के को अनायास देखें. और उनके नजरें उठाते ही उन्हें मालूम पड़ता है कि बिना वजह कमसेकम दो लड़के तो उसे देख ही रहे होते हैं.

girl-walking_060619070240.jpegलड़कियों को 'लोफरई' की सुविधा नहीं है, सड़क उनके लिए महज आने-जाने का माध्यम हैं.

उसे हर जगह कोई न कोई घूर ही रहा होता है. पुरुष नहीं तो औरत. मगर औरत के घूरने से वो पुरुष के घूरने की अपेक्षा कम असहज होती है. क्योंकि औरत से उसे खतरा नहीं महसूस होता.

दिल्ली की मेट्रो में, बसों में, ग्रामीण सेवा वाले वाहनों में, टुकटुक रिक्शों में, चांदनी चौक या कनॉट प्लेस की भीड़ में चलती हुई हर लड़की अल्पसंख्यक होती है और इसलिए सीटों पर बैठते हुए घुटने आपस में चिपका लेती है, फोन पर धीरे बात करती है, चलते हुए बैग को सीने की ओर से टांग लेती है या कुहनी को आगे कर ऐसी ढाल बना लेती है कि किसी के हाथ उसके स्तन से न टकराएं.

'केवल महिलाएं'

किसी भी जगह का अल्पसंख्यक, अल्पसंख्यक ही बना रहे, इसलिए सिस्टम कुछ सेफ्टी वाल्व बनाते हैं. जैसे प्रेशर कुकर न फाटे, इसके लिए सीटी लगी होती है. लेडीज कम्पार्टमेंट इसी तरह के सेफ्टी वाल्व की तरह दिल्ली की औरतों के जीवन में आया.

इकनॉमिक एंड पोलिटिकल साप्ताहिकी के मुताबिक़ एक लेडीज कोच में 43 औरतें बैठती और 318 खड़ी होती हैं. 'एडजस्ट' होने के बाद बैठने वाली लड़कियों की संख्या कई बार इसे ज्यादा हो सकती है क्योंकि यहां महिलाओं को डर नहीं होता कि किसी पुरुष से टच न हो जाएं. या कोई उन्हें घूर न रहा हो.

लेडीज कोच और बाकी मेट्रो के बीच की सीमा केवल एक 'दंडनीय अपराध' होती है. महिलाओं का एक्सक्लूसिव स्पेस करार दिए जाने के बावजूद पुरुष उसमें चढ़ते दिखते हैं. अक्सर ऐसे पुरुष अधेड़ महिलाओं या महिला गार्ड द्वारा खदेड़े जाते दिखते हैं.

खदेड़ देने की सीधी वजह ये है कि महिला, DMRC की महिला गार्ड और दूसरी महिलाओं के बीच सशक्त महसूस करती है. किसी भी उम्र के पुरुष को डपटने में उसे डर महसूस नहीं होता. किसी महिला को ज्यादा महिलाओं के बीच होना कॉन्फिडेंट करता है, उन्मुक्त करता है.

और इसलिए मिलनी चाहिए फ्री राइड्स

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की घोषणा को पॉपुलिस्ट बताया जा रहा. वोट खींचने की टेक्नीक बताया जा रहा. मगर इन सबके बीच एक सिल्वर लाइनिंग है:

1. दिल्ली विश्वविद्यालय की जिस स्टूडेंट को उसके घर वाले पेट काटकर पढ़ा रहे हैं, वो अब दसियों किलोमीटर ट्रेवल का खर्च बचा सकती है. दिल्ली विश्वविद्यालय की डे स्कॉलर्स गुरुग्राम, फरीदाबाद, नोएडा और गाजियाबाद से डेली अप-डाउन करती हैं.

2. जिस लड़की की कमाई से उसका पूरा घर चल रहा है. या जो सिंगल मदर अकेली नौकरी कर बच्चों को पल रही है, अब उसको घर चलाने में कुछ हज़ार रुपयों की राहत होगी.

3. घर की औरत का बाहर निकलना, घर के पुरुष के बाहर निकलने से अधिक किफायती है. क्योंकि कोई काम करने अगर पुरुष जाएगा तो वो उतने पैसे खर्च कर आएगा, जितने औरत के बाहर जाने से बच जाएंगे.

women-in-queue_060619071233.jpgऔरतों का बाहर निकलना उन्हें सीधे तौर पर सुरक्षित नहीं करता. पर भारी मात्रा में पब्लिक में मौजूद होना उन्हें कॉन्फिडेंस से भर देता है.

औरत का सड़क पर होना उसे सीधे तौर पर सुरक्षित नहीं करता. औरतों का मेट्रो में होना उन्हें बिलकुल सुरक्षित नहीं करता. यौन शोषण तो मेट्रो की भीड़ में भी होता है. मगर समझने वाली बात ये है कि जिस जगह महिलाएं ज्यादा होती हैं, उस जगह उनका यौन शोषण कम होता है. 

क्या कोई स्कीम औरतों को इतना प्रेरित कर सकती है कि वो सड़कों, बसों, मेट्रो को उसी तरह खचाखच भर दें जिस तरह पुरुष करते हैं. 2011 के सरकारी डाटा के मुताबिक़, दिल्ली के पब्लिक ट्रांसपोर्ट में 17 फीसद लोग ही औरतें हैं. क्या कोई स्कीम इसे 50 फीसद पहुंचा सकती है?

आदर्शवाद से इतर

मगर हम नहीं जानते कि ये फ्री राइड्स कैसे मिलेंगी. क्या औरतों के लिए कार्ड्स बनेंगे? क्या पुरुष उन कार्ड्स को हथिया नहीं लेंगे? क्या महिलाओं के लिए बिना टोकन की कतार बनेगी? ऐसे में मेट्रो में उनके चढ़ने और उतरने का रिकॉर्ड कैसे चढ़ेगा, जो सुरक्षा के लिहाज से बेहद जरूरी है.

सबसे बड़ी बात, डेल्ही मेट्रो रेल कॉरपोरेशन, जिसकी आधी मालिक दिल्ली सरकार है, और आधी केंद्र सरकार, क्या केजरीवाल की इस पेशकश को सच में बदलने देगा?

फ्री गिफ्ट और पुरुषवाद

सोशल मीडिया पर कई औरतों का कहना है कि औरतों को फ्री गिफ्ट देना अपने आप में स्त्री विरोधी आइडिया है. क्योंकि ये कहता है कि औरतें कमजोर हैं. कई लड़कियों का कहना है कि मैं कमाती हूं. मुझे नहीं चाहिए फ्री राइड. मेरी जगह किसी भी गरीब को दे दो.

ये आश्चर्यजनक नहीं है कि औरतों को लाभार्थी के एक समुदाय की तरह देख पाना लोगों को कचोटता है. लेडीज कम्पार्टमेंट पुरुषों को आजतक कचोटता है. कुछ साल पहले मैं लड़कियों के एक ग्रुप के साथ जनरल कम्पार्टमेंट में चढ़ी तो एक अंकल ने कहा, आपको तो अलग कोच दे दिया गया है. फिर हमारी सीट क्यों खराब कर रही हो. ऐसा माना जाता है कि जो 'जनरल' है, वो 'पुरुष' का ही है. चाहे मेट्रो हो या आम जीवन.

अगर औरत शहरी हो तो उनका लाभार्थी होना और ज्यादा खटकता है. कि उसे क्या जरूरत है. कई पुरुष फैसले के बाद नाराज़ दिखे. कि क्या गरीब औरत को ही फ्री राइड का हक है. गरीब पुरुष को नहीं?

हक़ है. मगर पुरुषों को घरों से बाहर निकालने के लिए किसी इंसेंटिव, किसी लाभ, की जरूरत नहीं. महिला कितनी भी पैसे वाली हो, वो महंगी कैब लेकर भी रात को असरुक्षित महसूस करती है. 'इज्जत' का ये डर किसी भी वर्ग  के पुरुष को नहीं सताता.  

पुरुष तो यूं ही पब्लिक स्पेस में मिल जाते हैं. मगर महिलाएं नहीं मिलतीं. जैसे मिड डे मील बच्चों को स्कूल लाती है. वैसे ही अगर फ्री राइड्स औरतों को सड़कों पर ले आती हैं, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में इतनी संख्या में भर देती हैं कि उन्हें डर न लगे. तो केजरीवाल का ये 'फ्री-बी' क्रांति का बहुत बड़ा हथियार हो सकता है.

मगर इन्हें कोई क्रांति की स्पेलिंग बताए 

पर लगता नहीं कि केजरीवाल और उनके सपोर्टर इतना लंबा सोच पा रहे हैं. सोशल मीडिया पर केजरीवाल को औरतों का सामूहिक रक्षक डिक्लेयर करने से लोग चूक नहीं रहे. जिस पुरुष गार्जियन की छाया से औरतों को ये फैसला बाहर लाने की ओर एक कदम हो सकता है, वही गार्जियन होने की जिम्मेदारी केजरीवाल लेते दिख रहे हैं: 

bhai-kejriwal_060619074126.jpgवोट चाहिए, क्रांति नहीं

ऐसे क्यूट पुरुषवाद से कैसे लड़ेंगे, बहन?

 

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