डियर आयुषी, स्मार्टफोन चलाने के लिए भी अब एक कठिन एग्जाम होना चाहिए
जो ज़हर आ रहा है उससे लोग ख़ुद इन्फेक्टेड होते हैं और फ़ॉरवर्ड करके दूसरों को भी करते हैं
आप पढ़ रहे हैं हमारी सीरीज- 'डियर आयुषी'. रिलेशनशिप की इस सीरीज में हम हर हफ्ते 'चचा' की एक चिट्ठी पब्लिश करेंगे. वो चिट्ठी, जिसे वह अपनी बेटी आयुषी के लिए लिखते हैं. इन चिट्ठियों से आपको ये जानने को मिलेगा कि एक पिता अपनी बेटी के लिए क्या चाहता है. ये चिट्ठियां हर उस पिता की कहानी बयान करेंगी, जिनके लिए उनकी बेटी किसी 'परी' से कम नहीं होती, जिनके लिए उनकी बेटी कुदरत की सबसे प्यारी रचना होती हैं.
डियर आयुषी,
तुमको मम्मी पढ़ाने में इतनी इरिटेट हो जाती हैं कि मुझे बोल देती हैं पढ़ाने को. तब उनका सिरदर्द और बढ़ जाता है जब मैं पढ़ाता हूँ. फ़ुल मज़ा आता है मुझे तुमको पढ़ाने में. जब तुम पूछती हो कि पापा 'अदरक' से कौन सा वाक्य बनेगा? तब मैं तुम्हें बताता हूँ "अदरक खोजकर ला और कूटकर चाय में डाल. 10 मिनट उबालकर कप में डालकर ला. अपने पापा को दे, अकेले मत पी जा." इतने लंबे वाक्य पर तुम्हारे मुंह बनाते ही मम्मी का बोल बचन शुरू हो जाता है. इतना इज़ी नहीं है तुम्हें पढ़ाना, ये मुझे खूब पता है. तुम्हारे काइयां दिमाग मे कार्टून छोड़कर कुछ और भरना टेढ़ा काम है. और ताने मुझे देती हो कि हमेशा मोबाइल में घुसे रहते हो.
मुझे ये बात अपराधबोध से भर देती है. मैं ज़्यादातर समय मोबाइल से दूर रहना चाहता हूं. तुम्हें पता है जब हमारा पाला किसी बुजुर्ग से पड़ता था बचपन में, तो बड़ी चिढ़ होती थी. वो हर बात में 'वे अच्छे पुराने दिन' बोलते रहते थे. मुझे समझ नहीं आता था कि इनको सारा दिन हड्डी तोड़ मेहनत करने के बाद भी पेट भर रोटी नहीं मिलती थी. हमेशा खेत मेड़ का झगड़ा चला करता था. 15 बच्चे पैदा होते थे जिनमें सिर्फ 5 बचते थे. जिनको पढ़ाने लिखाने की नौबत नहीं आती थी. किस बात के इनके पुराने दिन अच्छे थे. शायद नॉस्टेल्जिया याद कर करके उनको गुदगुदी होती रहती है इसलिए नई पीढ़ी को जलन महसूस कराने के लिए वो उन अच्छे पुराने दिनों की तान छेड़े रहते हैं.
मैं अभी बुजुर्ग नहीं हुआ हूँ लेकिन मुझे अपने अच्छे पुराने दिन याद हैं. वो वक़्त था जब लोगों के पास फ़ोन नहीं था. स्क्रीन में झांकने से गर्दन नीची नहीं रहती थी. नोटिफिकेशन की आशंका से हर मिनट हाथ जेब में नहीं जाता था. एक जगह 2 लोग बैठे हों या 200, वो आपस में बातें करते थे. मैंने ख़ुद चिट्ठियां भेजी और पाई हैं, उनके इंतज़ार में अजब सी खुशी थी. सुविधाएं कम थीं लेकिन सुविधाओं का बेजा इस्तेमाल नहीं था. लोग 7-8 घण्टे की लंबी नींद लेते थे. जिसकी वजह से उनके चेहरे पर ताजगी रहती थी और हमेशा फ्रस्टेटेड नहीं दिखते थे. स्क्रीन्स कम थीं, अमन चैन ज़्यादा.
सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
तब लोग गिरे हुए को दौड़कर उठाते थे या फिर आंख बचाकर निकल जाते थे. लेकिन खून से लथपथ पड़े लोगों का वीडियो नहीं बनाते थे. तब लोगों को खून देखकर सिहरन होती थी. रोंगटे खड़े हो जाते थे. मैंने जब पहली बार ऐसा वीडियो देखा तो तीन दिन खाना नहीं खा पाया. सो नहीं पाया. फिर उसके बाद सिहरन की फ्रिक्वेंसी कम होती गयी. ये 10 साल पहले की बात है. अब रोज़ देखते हैं तो 5 मिनट बाद नॉर्मल हो जाते हैं. इधर एक आतंकी हमले के बाद रोज़ जवानों के परिजनों की रुला देने वाली तस्वीरें आती हैं. उन आख़िरी पलों के वीडियोज़ भी होते हैं जो उनके बेहद निजी पल होते हैं. जब आख़िरी बार उन्हें नज़र भर देख लेने और रो लेने की प्राइवेसी होनी चाहिए, वो नहीं होती. हर इमोशन की हैसियत सिर्फ़ एक पैकेज की है
इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने हमको भरपूर सुविधाएं दीं. गांव की औरतें सऊदी में 2 साल से बैठे पति से रोज़ वीडियो कॉल पर घण्टों बातें करती हैं. उनको अब दूरी महसूस होती है लेकिन बहुत कम. यहां चांदनी चौक की मार्केट में मैंने देखा कि एक आंटी अंकल के लिए कोट लेने आई थीं. अंकल अपने ऑफिस में. वो यहां सारे कोट उलट पलट कर उनको दिखा रही थीं. वीडियो कॉल से. बहुत कुछ अच्छा है लेकिन ये सुकून और सुविधा कम लोग एन्जॉय कर पा रहे हैं. ज़्यादातर तो अपने बच्चों से खेलने, पढ़ने लिखने और घूमने का समय इसको दे रहे हैं. बदले में जो ज़हर आ रहा है उससे ख़ुद इन्फेक्टेड होते हैं और फ़ॉरवर्ड करके दूसरों को भी करते हैं.
सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
कभी कभी कुछ ऐसी चीज़ें दिख जाती हैं कि लगता है इस पर भी कानून बनना चाहिए. जैसे गाड़ी चलाने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत होती है वैसे ही स्मार्टफोन पर भी हो. ये इतनी ताकतवर चीज़ है कि दंगे करा सकती है. उजड्डों के हाथ में बिना वेरिफिकेशन के देना नहीं चाहिए. तुम मुझे डांटती हो तो ठीक करती हो. सच यही है कि स्मार्टफोन चलाने के लिए भी अब एक कठिन एग्जाम होना चाहिए.
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