डियर आयुषी, मार्कशीट में नंबर भले कम रहें,अच्छे लोगों की कमी मत रखना

तुम अपने अंदर नंबर्स की नहीं इंट्रेस्ट की भूख पैदा करना

आशुतोष चचा आशुतोष चचा
अक्टूबर 25, 2018

आप पढ़ रहे हैं हमारी सीरीज- 'डियर आयुषी'. रिलेशनशिप की इस सीरीज में हम हर हफ्ते 'चचा' की एक चिट्ठी पब्लिश करेंगे. वो चिट्ठी, जिसे वह अपनी बेटी आयुषी के लिए लिखते हैं. इन चिट्ठियों से आपको ये जानने को मिलेगा कि एक पिता अपनी बेटी के लिए क्या चाहता है. ये चिट्ठियां हर उस पिता की कहानी बयान करेंगी, जिनके लिए उनकी बेटी किसी 'परी' से कम नहीं होती, जिनके लिए उनकी बेटी कुदरत की सबसे प्यारी रचना होती हैं. 

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डियर आयुषी, 

तुम जो दशहरे के मेले से 20 तरह के बजने वाले खिलौने लाई हो न, इनको ठिकाने लगा दो. थोड़ी शांति भी चाहिए होती है कभी. हालांकि तुम्हारा शांत होना मुझे बिल्कुल नहीं पसंद. कभी जरा सी तबीयत खराब होने पर जब तुम चुप हो जाती हो या चिड़चिड़ी हो जाती हो तो मैं बहुत परेशान हो जाता हूं. मैं फिर किसी भी तरह तुम्हारी शैतानियां रीलोड करना चाहता हूं. तुम्हारा चीखना चिल्लाना सब कुछ. लेकिन उस वक्त तुम दार्शनिकों की तरह बातें करने लगती हो. कि 'पापा, अच्छे बच्चे तो अपने पापा का कहना मानते हैं. पढ़ाई करते हैं. झगड़ा नहीं करते.' लेकिन ठीक होते ही तुम ये सारा दर्शन भूल जाती हो. मैं चाहता हूं तुम भूली ही रहो. मगर अभी तो तुम्हारा ये चाबी भरकर ड्रम बजाने वाला डोरेमान बहुत कनखउवा है कसम से. 

हां तो पिछले हफ्ते हम पहुंचे थे तुम्हारे स्कूल. पीटीएम में. हाफ इयर्ली एग्जाम का रिजल्ट दिखा रही थीं मैडम. तुम कूल थी, हम हमेशा की तरह रिजल्ट से डरे हुए थे. तुम्हें वहां नंबर्स देखने से पहले झूला देखने की जल्दी थी. झूले से पेट नहीं भरता तुम्हारा. वहां हमने तुम्हारे नंबर्स देखे. किसी में पूरे नंबर मिले थे तो किसी में दो-तीन कम. मैंने तुम्हारी मम्मी की तरफ देखा था. उसके कान में कहा भी कि ये मेरी बच्ची नहीं हो सकती. मैं तो ग्रेस मार्क्स से पास होता था. तुमने इतना भारी लक्ष्य कैसे अचीव किया होगा. फिर मम्मी ने और बच्चों के रिजल्ट दिखाए. उनमें बहुत से बच्चों के 30 में 30 नंबर थे. तब जाकर मेरी जान में जान आई.

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देखो नंबर्स की दौड़ बेकार है. ये बात वैसे तो मोटिवेशनल स्पीकर्स बहुत बोलते हैं. लेकिन ये आधा सच है. नंबर्स की दौड़ बेकार है, सिर्फ एग्जाम में. मार्कशीट की खसरा खतौनी तुम्हारी योग्यता का सिर्फ एक पहलू दिखा सकती है. कि तुम रट्टा मारकर कितना लिख सकती हो. जबकि पढ़कर तुमने कितना सीखा, ये नापने का कोई पैमाना नहीं है. मैं तुम्हें अपना उदाहरण देता हूं. मुझे किताब में निशान लगाकर पढ़ाया जाता था कि यहां से यहां तक रट डालो. इतने सिलेबस में पास हो जाओगे. पास होने के लिए मैं टीचर्स के हिसाब से चलता था. बाकी मुझे जिस चीज में इंट्रेस्ट होता था वो किताबें मैं पूरी चाट जाता था. बिना इस बात का लोड लिए कि ये एग्जाम में आएगा या नहीं. मुझे साहित्य में रुचि थी. कोर्स में तुलसी के पद पढ़ाए जाते थे. वहां तुलसीदास में इंट्रेस्ट आया तो गर्मी की छुट्टी में पूरी रामचरित मानस पढ़ ली. मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी कोर्स में होती थी. उससे इंट्रेस्ट बढ़ा तो प्रेमचंद का सारा लिखा पढ़ डाला. विज्ञान और तकनीक में जो इंट्रेस्ट था कि तब से लेकर अब तक सीखना जारी है. इसीलिए कहता हूं कि तुम अपने अंदर नंबर्स की नहीं इंट्रेस्ट की भूख पैदा करना. 

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अब वो आधी बात, कि नंबर्स कहीं कहीं जरूरी भी हैं. मेरी जिंदगी में, मेरे आस पास रहने वाले अच्छे लोग ज्यादा हैं. मेरे साथ काम करने वाले अच्छे लोग गिनती में ज्यादा हैं. मेरा भला सोचने वाले, मुझसे खेलने वाले, मेरी हंसी खुशी में शामिल होने वालों की गिनती ज्यादा है. मैं ये भी गिनकर रखता हूं कि पिछले एक हफ्ते में मैंने कितने नए शब्द सीखे. कितने नए विकीपीडिया पेज खंगाले. कितने किलोमीटर पैदल चला. कितने नए लोगों से हाथ मिलाया. कितने पुराने भूले बिसरे नंबर्स पर कॉल किया. मार्कशीट में नंबर भले कम रहें, अच्छे लोगों की कमी मत रखना.

 

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