डियर आयुषी, कुदरत ने कान सिर्फ ऐनक फंसाने के लिए नहीं दिए
अगर तुम ध्यान से सुनोगी, तभी सबका मुंह बंद कर पाओगी.
आप पढ़ रहे हैं हमारी सीरीज- 'डियर आयुषी'. रिलेशनशिप की इस सीरीज में हम हर हफ्ते 'चचा' की एक चिट्ठी पब्लिश करेंगे. वो चिट्ठी, जिसे वह अपनी बेटी आयुषी के लिए लिखते हैं. इन चिट्ठियों से आपको ये जानने को मिलेगा कि एक पिता अपनी बेटी के लिए क्या चाहता है. ये चिट्ठियां हर उस पिता की कहानी बयान करेंगी, जिनके लिए उनकी बेटी किसी 'परी' से कम नहीं होती, जिनके लिए उनकी बेटी कुदरत की सबसे प्यारी रचना होती हैं.
डियर आयुषी,
मेरी समझ में ये नहीं आता कि तुम्हारी उम्र ज्यादा तेजी से बढ़ रही है या शैतानियां. खुशी इस बात की है कि तुम मेरी बात सुन लेती हो. एक बार में नहीं लेकिन 8-10 बार में तो सुन ही लेती हो. तुम जानती हो कि हमारी सुनने की क्षमता कम होती जा रही है. इयरफोन लगाने की वजह से नहीं, हमारे मुंह की वजह से. मुंह हमारे इतना चलने लगे हैं कि कानों को सिर्फ अपनी ही आवाज सुनाई देती है. किसी और का कहना सुन ही नहीं पाते, समझ कैसे पाएंगे? और सुनने समझने का सिलसिला जब बंद हो जाता है तो जनरेशन गैप वाली बात खतम हो जाती है. क्योंकि अपनी ही जनरेशन के लोगों के बीच गैप बढ़ जाता है.
तुमको पता है कि श्रवण कुमार का नाम श्रवण कुमार कैसे पड़ा? हां-हां वही जिसे दशरथ ने शब्दभेदी बाण मार दिया था. उसका नाम इसलिए श्रवण कुमार पड़ा क्योंकि उसकी श्रवण शक्ति अच्छी थी. मम्मी-पापा की हर बात सुन लेता था. लेकिन दशरथ की श्रवण शक्ति उनसे भी तेज निकली. बिना देखे सिर्फ सुनकर जान ले ली. इसका मतलब समझी? मतलब यही है कि जितना ज्यादा सुनने की क्षमता होगी, जीवन उतना आसान रहेगा. श्रवण कुमार अपने मम्मी पापा की आवाज के बिना बाकी चीजों पर भी थोड़ा फोकस रखता तो शायद कुछ दिन और जीवित रहता. इसके आगे ये वाली कहानी नहीं बढ़ाएंगे नहीं तो धार्मिक आस्था यू नो.
सांकेतिक तस्वीर: ट्विटर
तुम अभी छोटी हो और मुझे खुशी है कि तुम मेरे साथ खेलने की जिद करती हो. मैं थका रहूं फिर भी तुम मेरे ऊपर सवारी कस लेती हो. जहां बाकी बच्चे मोबाइल मांगने में बिजी रहते हैं, तुम्हारी प्रायोरिटी मेरे साथ या बाकी बच्चों के साथ खेलने की रहती है. मोबाइल हमेशा दूसरा ऑप्शन रहता है. तुम अभी बड़ी होती तो हमारे आस पास का वातावरण देखती. घरों में लोग दूसरे को बातें सुना रहे हैं. सड़क पर भी लोग बातें सुना रहे हैं. टीवी खोलो तो उसमें कोई तुमको उस पर सुनने वाला नहीं मिलेगा. बड़े बड़े ज्ञानियों की आवाजें दब जाती हैं शोर में. व्हाट्सऐप ने लोगों को इतना ज्ञानी बना दिया है कि अब सिर्फ कहने के लिए बचा है, सुनने के लिए नहीं.
मुझे ख़ुशी है कि तुम हमारे साथ खेलती हो. सांकेतिक तस्वीर: पिक्साबे
ये वन वे ट्रैफिक खतरनाक है. हम लोग किसी भी चीज की अति कर देते हैं. जब सुनते थे तो सबकी सुनते थे. तभी तो ये कहावत बनी कि 'चार लोग क्या कहेंगे.' जिन चार लोगों को नहीं जानते उनके भी कहने का डर था, क्योंकि हम सुनते थे. रिश्तेदार जो कहते वो सुनते. पड़ोसी जो कहते वो सुना जाता. फिल्में और टीवी सीरियल जो कहते वो सुनते थे. सुनने के इतने बड़े शौकीन थे कि गांव में टीवी में सिग्नल न आने पर कुछ न दिखे और सिर्फ सुनाई दे तो वो भी सुनते थे. रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री सुनते थे. उस कमेंट्री के वक्त बगल में खड़ा कोई कुछ बोल दे तो उसके कान के नीचे बजा देते थे. कभी मनुष्य इतना बड़ा सुनैया वीर हुआ करता था और ये पाषाण काल की बात नहीं है.
सांकेतिक तस्वीर: पिक्साबे
तब हम ओवरडोज सुनते थे क्योंकि कहने के साधन नहीं थे. अब हमारे पास कहने के साधन हैं तो सारी ताकत लगाकर बोलने में लगे हैं. कहते हैं कि एक पन्ना लिखने के लिए बहुत सारा पढ़ना जरूरी होता है. नहीं तो बहुत जल्दी मानसिक तौर पर खाली हो जाएंगे. वही बात कहने के साथ भी शुरू होती है. बहुत ज्यादा बोलने के लिए बहुत सारा सुनना पड़ता है. अगर सुनने का काम न होता तो कुदरत ने कान सिर्फ ऐनक फंसाने के लिए थोड़ी दिए हैं. अगर तुम ध्यान से सुनोगी, तभी सबका मुंह बंद कर पाओगी.
लगातार ऑडनारी खबरों की सप्लाई के लिए फेसबुक पर लाइक करे