बर्थ सर्टिफिकेट पर अनिवार्य नहीं पिता का नाम, फिर भी लड़नी पड़ी कानूनी लड़ाई

क्यों अब भी सिंगल मदर्स को करना पड़ता है संघर्ष?

प्रतीकात्मक तस्वीर.

जब दो लोग एक-दूसरे से शादी करते हैं. और शादी के बाद किसी तीसरे को दुनिया में ले आते हैं. तब कहीं जाकर एक परिवार ‘पूरा’ होता है. उस परिवार के किसी भी एक सदस्य की गैर-मौजूदगी समाज को खटकती है. क्योंकि सिंगल मदर या फादर के कॉन्सेप्ट से अब भी हम यूज़ टू नहीं हुए हैं. और ना ही समाज के ‘आदर्श परिवार’ की परिभाषा से उबरे हैं. शायद इसीलिए 2015 में सिंगल पेरेंट्स पर आए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद आज भी सिंगल मदर्स को अपने सिंगलहुड को प्रूव करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. मथुमिता उन्हीं सिंगल मदर्स में से एक हैं.

कौन हैं मथुमिता, जिनकी बच्ची को बिना पितावाली पहली संतान होने की संज्ञा दी जा रही है?

मथुमिता रमेश चेन्नई की हैं. और पेशे से डॉक्टर हैं. पिछले ही साल उन्होंने स्पर्म डोनर की मदद से इंट्रायूटरिन फर्टिलिटी प्रक्रिया के ज़रिए एक बच्ची को जन्म दिया था. बच्ची का नाम ‘ताविशी परेरा’ है. जब बच्ची का जन्म हुआ तो त्रिची के निगम आयुक्त ने उनके जन्म प्रमाण पत्र पर मनीष मदनपाल मीणा का नाम ‘पिता’ के तौर पर लिख दिया था. मनीष वो शख्स हैं, जिन्होंने इलाज के दौरान मथुमिता की सहायता की थी. जब मथुमिता को यह बात पता चली, तो उन्होंने संबंधित अधिकारियों से बच्ची के जन्म प्रमाण पत्र से पिता का नाम हटाने को कहा. अधिकारियों ने मथुमिता की इस मांग को ख़ारिज करते हुए कहा कि वो बस नाम में सुधार कर सकते है. पिता के कॉलम को खाली छोड़ना उनके दायरे में नहीं है.  

यहीं से मथुमिता की कानूनी लड़ाई शुरू हुई

मद्रास हाई कोर्ट. मद्रास हाई कोर्ट.
नाम हटवाने के लिए उन्होंने सबसे पहले हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जहां जज ने रेवेन्यू अधिकारियों को सर्टिफिकेट में सुधार करने का आदेश तो दे दिया. लेकिन अधिकारियों ने ये कहते हुए इसे वापस ख़ारिज कर दिया कि जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रार ही इस मसले का कोई समाधान निकाल सकते हैं. मथुमिता ने वापस कोर्ट का रुख किया. जहां काउंसिल ने पूरे मामले को जस्टिस एम.एस.रमेश के सामने रखा. यह स्पष्ट होने के बाद कि मथुमिता ने डोनेटेड सीमन की मदद से इंट्रायूटरिन फर्टिलिटी प्रक्रिया के ज़रिए गर्भधारण किया था. कोर्ट ने उनकी मांग को एक लंबे समय के बाद मंजूरी दे दी है. अब त्रिची कॉर्पोर्रेशन के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी को पिता के नाम में सुधार करने का निर्देश दे दिया गया है. 

मथुमिथा की बेटी ताविशी अब 'बिना पिता वाली' देश की पहली संतान बनने जा रही हैं. ऐसे में जब हमने इस पर उनसे बात कि तो उनका पहला रिएक्शन था, 'मैं खुश हूं कि इस संघर्ष में मुझे सफलता मिली. पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो 2015 में ही आ चुका है. उसी वक्त जन्म और मृत्यु रेजिस्ट्रेशन एक्ट में इस बात को भी शामिल किया गया था कि कोई भी सिंगल मदर अगर बच्चे के बॉयोलोजिकल पिता का नाम किसी भी जगह नहीं मेंशन करना चाहती, तो ये उसकी मर्ज़ी है. ऐसा करने का उसे पूरा हक़ है. हां, ये विडंबना ही है कि उसके बावजूद मुझे इतनी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. मेरे इस संघर्ष से आप एक बात समझ सकते हैं कि चाहे 2015 हो या 2018. 2030 भी आ जाए. समाज को  सिंगल मदर्स और बिना पिता वाले उनके बच्चों को स्वीकारने में लंबा समय लगेगा.'

क्या था सुप्रीम कोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला?

दरअसल जुलाई, 2015 में जस्टिस विक्रमजीत सेन और अभय मनोहर की खंडपीठ ने एक ‘ऐतिहासिक फैसला’ सुनाते हुए कहा था कि अब सिंगल मदर को अपने बच्चों की गार्जियनशिप के लिए, पिता की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी. वह पुरुष यानी (पिता) की सहमति के बिना भी, अपने बच्चे की कानूनन अभिभावक बन सकती है. अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि ऐसे मामलों में केवल मां का नाम ही काफी होगा. और बाकी सिंगल मदर्स को बच्चे के बाप की पहचान बताने की भी कोई जरूरत नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद आज भी देश में ऐसी मांओं को अपने सिंगल होने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है. साल 2016 में भी बंबई की एक 31 वर्षीय महिला ने इसके ख़िलाफ बंबई हाई कोर्ट में पेटीशन दायर की थी.

सुप्रीम कोर्ट. सुप्रीम कोर्ट.

 

 

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