5 बातें जो साबित करती हैं कि मेघना गुलज़ार और आलिया भट्ट फिल्मफेयर अवॉर्ड्स की हक़दार हैं

वो सब, जो इस फिल्म से हम घर लेकर आए थे.

 

24 मार्च 2019 को फिल्मफेयर अवॉर्ड दिए गए. 2018 की सभी फिल्मों में 'राज़ी' को दो अवॉर्ड मिले. एक, मेघना गुलज़ार को बेस्ट डायरेक्शन के लिए. दूसरा, अलिया भट्ट को बेस्ट एक्टर फीमेल (पॉपुलर) के लिए. पढ़िए फिल्म पर लिखे कुछ नोट्स. जिससे मालूम पड़ता है कि आलिया और मेघना इस अवॉर्ड की हक़दार क्यों हैं.

1

"मुझे आपकी इस दुनिया में वापस नहीं लौटना."

पति के मर जाने पर बिलखती हुई सेहमत जब मीर से ये कह रही होती है, वो केवल एक सेहमत की आवाज़ नहीं, जाने कितनी बिलखती औरतों की आवाज़ थी, जिन्होंने युद्धों में अपने परिवार खोए थे. मीर उससे कहता है कि जंग में मैं और तुम नहीं, केवल जंग है, जो महत्व रखती है. और फिल्म के अंत में हमें पता पड़ता है कि जंग में जीत मुल्कों और सेनाओं की नहीं, महज़ जंग की होती है. 

शरीर तपाया, पर मीर जैसी निष्ठुर न हो पाई सेहमत. शरीर तपाया, पर मीर जैसी निष्ठुर न हो पाई सेहमत.

सेहमत जीतकर हारी और हारकर जीती. जाने क्या जीती, जाने क्या हारी, उसे नहीं मालूम. वो अंत तक अपने अंदर के द्वंद्व से लड़ती रही. सब कुछ छोड़कर घर वापस लौटने में सेहमत को सम्राट अशोक की तरह हजारों जानें लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी. अपने हाथों वो दो क़त्ल कर ही जान गई थी कि उसे वापस जाना है. सेहमत ने खूब ट्रेनिंग ली, शरीर तपाया, मगर वो मीर सी निष्ठुर न बन सकी. सेहमत का बिलखता चेहरा मीर के निर्जीव दिखने वाले चेहरे और सूखी आंखों से बिल्कुल उलट था. उसे मालूम था कि वो मीर नहीं बनना चाहती. दो लोगों की जान लेने के बाद उसे मालूम था कि उसका काम सृजन है. और इसीलिए वो इकबाल से मिली अपनी संतान को गिराएगी नहीं.

इसी तरह हज़ारों पुरुष सृष्टि के आरंभ से विध्वंस करते रहे और हज़ारों औरतें सृजन करती रहीं. मुल्कों को बचाने की शायद दोनों को ज़रूरत होती है. मगर हमने अपनी भूमिकाएं चुन ली हैं.

2

"मुस्कुराना, तुम बहू हो."

BBC शरलॉक के एपिसोड 'अ स्टडी इन पिंक' में सीरियल किलर एक कैब ड्राइवर होता है. उसे तलाशते हुए शरलॉक अपने 'डिडक्शन' की क्रिया में एक ऐसे व्यक्ति को खोज रहा होता है, जो हमारे हर तरफ है. हम उन्हें नहीं जानते, मगर उन पर पूरा भरोसा करते हैं. एक टैक्सी में बैठकर हम अपने राज़ आपस में बतियाने से शरमाते नहीं. हमें मालूम है कि ये कैब ड्राइवर उसे किसी से नहीं कहेगा. ये कैब ड्राइवर अदृश्य होते हैं, मगर हर जगह होते हैं. औरतें भी कुछ ऐसी ही होती हैं. 

शरलॉक और कैब ड्राइवर संवाद में शरलॉक और कैब ड्राइवर संवाद में

किसी को औरतों पर शक नहीं होता. तब तो बिल्कुल नहीं, जब वे सीधी-सादी बहू हों. औरत को अपनी पहचान छिपाने के लिए बहरूपिया नहीं बनना पड़ता, क्योंकि उनकी कोई ऐसी पहचान है ही नहीं, जो छिपाई जाए. उनका होना और न होना बराबर है, इसलिए उनके सामने देश की सुरक्षा के सभी बड़े मसलों पर विमर्श किया जा सकता है.

हमने जासूस औरतों को 'फेम फताल' के रूप में जाना. वो जो दुश्मन खेमे को अपने रूप और कामुकता के जाल में फंसाकर, उन्हें बिस्तर तक ले जाकर, उन्हें शराब पिलाकर सारे राज़ निकाल सकती हैं. मगर पत्नियों और बहुओं को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं होती.

3

"क्या हमारे बीच कभी कुछ सच था?"

पति, पत्नी की धोखाधड़ी से टूट सकता है. मगर अंततः हम जंग में हैं और जंग में हम अपने वतन के लिए कुछ भी करेंगे. 2016 की फिल्म 'अलाइड' अनायास याद आती है, जिसमें विंग कमांडर मैक्स वतान (ब्रैड पिट) को मालूम चलता है कि उसकी पत्नी मारियान (मारियन कोटिलार्द) एक जर्मन जासूस है. पर प्रेम जीतता है, हिंसा हार जाती है. 

कमांडर वतान तमाम गैरजरूरी युद्धों के बीच प्रेम को चुनता है कमांडर वतान तमाम गैरजरूरी युद्धों के बीच प्रेम को चुनता है

मगर 'राज़ी', 'अलाइड' जैसी प्रेम कहानी नहीं है. यहां एक-दूसरे से प्रेम से ज़्यादा ज़रूरी अपने-अपने वतन से प्रेम होना है. हम एक-दूसरे को सज़ा नहीं देंगे. एक-दूसरे की जान नहीं लेंगे, क्योंकि हम ये जानते हैं कि हम अपनी-अपनी जगह सही हैं. इकबाल और सेहमत का टूटने के बावजूद एक-दूसरे के बारे में ये सत्य जान लेना शायद प्रेम था. इसलिए न होकर भी ये प्रेम कहानी थी.

4

"वतन के लिए कुछ भी", मगर क्या सचमुच?

मुल्कों को बचाने वाले हीरो या तो फौजी हुए हैं या सुपरहीरो. बिना रुके गोलियां चलाने वाला अपराधबोध से गुज़रता है क्या? हमारी फिल्मों ने नहीं बताया. मगर हमें मालूम है कि सेहमत एक क़त्ल (अगर हम उसे क़त्ल मानना चाहें तो) करने के बाद चैन से सो नहीं पाती है. वो रोती है. दिन-रात रोती है. 

बहुओं पर कोई शक़ नहीं करता. बहुओं पर कोई शक़ नहीं करता.

ऐसा कम ही हुआ है कि औरतों ने मुल्कों को बचाया हो. वो नायक का साथ देने के लिए होती हैं. मगर अपने दुश्मनों के परिवार में घुसना, फिर एक-एक कर उन्हें मारना, कभी गाड़ी से कुचलना तो कभी उन पर बंदूक तान देना, सीमा पर लड़ने से अलग है. अगर एक-एक दुश्मन फौजी के साथ कई दिन वक़्त बिताकर हम उन पर बंदूक तानने के पहले उनकी आंखों में देख पाते, जिस तरह सेहमत देख पाई, तो शायद युद्ध न होते.

5

वतन की परिकल्पना

सेहमत बचपन से जवानी तक वतन को अपने पिता की निगाहों से देखती आई थी. उसे मालूम था कि वतन हमसे बनता है और हम सभी वतन हैं. आज साल 2018 में दिल्ली एयरपोर्ट से दिल्ली शहर की तरफ बढ़ते हुए दिखने वाला वायु सेना का एक बोर्ड कहता है, 'सहकर्मी टिफ़िन शेयर करते हैं, साथ में युद्ध लड़ने वाले क़िस्मत शेयर करते हैं.' 

क्या लगातार गोलियां दागता फौजी अपराधबोध से गुजरता है? तस्वीर: फिल्म बॉर्डर में सनी देओल क्या लगातार गोलियां दागता फौजी अपराधबोध से गुजरता है? तस्वीर: फिल्म बॉर्डर में सनी देओल

क्या हमारी फिल्मों में फौजियों ने दुश्मन फौजियों के साथ टिफ़िन और क़िस्मत, दोनों शेयर की हैं? सेहमत ने ऐसा किया था और इसलिए वो फौजी नहीं थी. और अगर जीवन के किसी मोड़ पर थी भी, तो वो पहले औरत थी. वो हमेशा औरत थी. पत्नी और बहू न हो पाई, मगर औरत थी.

और अंत में

इक़बाल (विकी कौशल) कैसे न भरोसा करता सेहमत पर? वो उसकी पत्नी थी. इक़बाल (विकी कौशल) कैसे न भरोसा करता सेहमत पर? वो उसकी पत्नी थी.
अंत में हम युद्ध जीत गए, पर क्या अंतर्द्वंद्वों से जीत पाए?

 

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