फिल्म रिव्यू: मंटो

उस लेखक पर बनी फिल्म, जिसपर अश्लीलता के तमाम आरोप थे.

आपात प्रज्ञा आपात प्रज्ञा
सितंबर 21, 2018
‘मंटो एक इंसान है’ . फोटो क्रेडिट- यूट्यूब

‘सवाल ये है कि जो चीज़ जैसी है उसे वैसे ही क्यों न पेश किया जाए?’

मंटो का ये कथन इस फिल्म की ताकत है और कमज़ोरी भी.

मंटो को उनके असल रूप में दिखाने की कोशिश की है नंदिता दास ने. वो जैसे थे बिल्कुल वैसे. एक लेखक की तरह नहीं, एक इंसान की तरह. जो अपने जीविकोपार्जन के लिए लिखते हैं लेकिन असल में हम सबकी तरह एक आम इंसान हैं. अपनी बेटियों के साथ खेलते हैं. दोस्तों के साथ बहस करते हैं. सिगरेट पीते हैं. शराब पीते हैं. जेल जाने से डरते हैं. पसोपेश में जीते हैं. बस एक बात में हममें से ज़्यादातर लोगों से अलग हैं मंटो, वो सच बोलते हैं. हर जगह, हर इंसान से. बीवी परेशान होती है तो कहते हैं - ‘तुम छोड़ दो मुझे. मैंने तो पहले ही तुम्हारे पिता को बताया था कि मैं शराब पीता हूं.’ कॉलेज में बुलाया जाता है तो कहते हैं कि मैं शराब पीकर आ सकता हूं? दोस्त से कहते हैं ये सिगरेट तुम्हारे लिए नहीं है, ये बढ़िया वाली पियो. अफसानों में जीते हैं. उनके किरदारों में जीते हैं. अफसानों के ज़रिए ही मंटो को दिखाने की कोशिश है ये फिल्म ‘मंटो’.

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लेखकों की कहानियों, उपन्यासों पर तो बहुत सी फिल्में बनती हैं लेकिन लेखक के जीवन पर बनी शायद ये पहली हिन्दी फिल्म है. ‘मंटो एक इंसान है’ - ‘मंटोईयत’ गाने में दोहराई जाने वाली ये पंक्ति पूरी फिल्म में चलती है. मंटो एक इंसान हैं लेकिन क्या वो केवल एक इंसान है? क्या वो केवल एक लेखक है? क्या हैं मंटो और उससे भी ज़रूरी है कौन हैं मंटो? ये फिल्म ‘कौन हैं मंटो’ पर ज़्यादा केन्द्रित है.

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मंटो आम होते हुए भी खास हैं. उनकी कहानी हमें पता है. उनकी कहानियां हमें पता है. वो कहानियां जो फिल्म में मंटो को दिखाती हैं. मंटो सिगरेट जलाने के लिए माचिस जलाते हैं, वो नहीं जलती. उनकी कहानी का किरदार उसे जलाने के लिए आगे आता है. हमें कहानी में ले जाता है. मंटो रिफ्यूज़ी कैंप में घूमते हैं तो किरदार अपनी बेटी को खोजता है. मंटो के चारों तरफ उनकी कहानियां हैं. उनके किरदार हैं. ये फिल्म की ताकत है. वो मंटो और उनके अफसानों को अलग-अलग नहीं दिखाती. साथ खड़ा दिखाती है. मंटो अपनी कहानियों को आस-पास घट रही घटनाओं में देखते हैं. उनके किरदारों को आम लोगों से चुनते हैं. मंटो में उनके फसाने हैं और उन फसानों में ही मंटो.

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दिक्कत यहां ये है कि मंटो ने जिस तीखेपन और अड़ियल अंदाज़ से अपने किरदारों का समर्थन किया है, अपनी कहानियों के लिए लड़े हैं वो ये फिल्म नहीं कर पाती. मंटो का हर किरदार हमें सोचने पर मजबूर करता है. उनका लिखा हर वाक्य कहीं टकराता है हमारे भीतर. कुछ है जो टूटता है. कुछ बनता है. हम हम नहीं रह जाते उनकी कहानियों को पढ़ने के बाद. कुछ और हो जाते हैं. कुछ बदलता है हमारे अंदर. ये बदलाव फिल्म नहीं कर पाती. हम फिल्म देखते हैं. उसे जी नहीं पाते.

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फिल्म और खूबसूरत हो सकती थी. संभावनाएं और तलाशी जा सकती थीं. मंटो के किरदार में. उनके अफसानों के किरदारों में. असलियत जो अफसाने में बयां करने की कोशिश की गई वो महज़ अफसाना बन कर रह गई. जुड़ नहीं पाई. पैठ नहीं पाई जैसे मंटो पैठे हैं हमारे दिल-ओ-दिमाग में. जैसे उनकी कहानियां पैठी हैं. उनके किरदार पैठे हैं. फिल्म पूरी नहीं लगती. लगता है कुछ रह गया है. कुछ छूट गया है. कुछ और दिखाना था. कुछ बाकी है.

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मंटो पर इससे पहले एक पाकिस्तानी फिल्म भी बन चुकी है. 2015 में आई ये फिल्म मंटो की कहानियों से प्रेरित थी. नंदिता दास ने मंटो को पर्दे पर दिखाने का अच्छा प्रयास किया है. इससे पहले उन्होंने ‘फिराक़’ फिल्म का निर्देशन किया था. जो गुजरात दंगों की कहानियों पर बनी थी.

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फिल्म की सिनेमैटोग्रॉफी खूबसूरत है. बहुत खूबसूरती से कैमरे के फ्रेम्स का प्रयोग किया गया है. जब मंटो अपने कमरे में बैठे हैं और अपनी बेटी को देखते हैं. जब एक बाप अपनी बेटी को खोजते हुए रिफ्यूज़ी कैंप में चक्कर लगाता है. उसकी बेटी बीमार है. पड़ी हुई है बिस्तर पर. डॉक्टर कहता है खोल दो और लड़की अपनी सलवार नीचे कर देती है. जब टोबा टेक सिंह दो बॉर्डर्स के बीच असमंजस में पड़ा हुआ है. इन सभी दृश्यों में सिनेमैटोग्रॉफी का देखने लायक है.

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नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने बेहतरीन एक्टिंग की है. उनके अलावा मंटो को कोई और शायद ही निभा पाता. वो ढीला कुर्ता, चश्मा, हाथ में सिगरेट, आंखों में अक्खड़पन और मंटो की सहजता ये नवाज़ुद्दीन ही अपने किरदार में ला सकते हैं. मंटो का किरदार उनके लिए जाना जाएगा. कुछ दृश्यों में मंटो इतना उभर कर सामने आते हैं कि वो किरदार हैं ये एहसास ही नहीं होता. मंटो के अलावा उनकी पत्नी साफिया और उनके दोस्त श्याम के रोल अहम हैं. जो पूरी फिल्म में उनके साथ चलते हैं. साफिया का रोल किया है रशिका दुग्गल ने. श्याम बने हैं ताहिर राज भसिन. मंटो की पत्नी के रोल में साफिया की एक्टिंग बहुत बढ़िया है.  

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इस्मत चुगताई, फैज़, कृष्ण चंदर, अशोक कुमार जैसे महत्वपूर्ण किरदार भी हैं फिल्म में. फिल्म में रणवीर शौरी, दिव्या दत्ता, ऋषि कपूर, राजश्री देशपांडे, इला अरूण, परेश रावल, तिलोत्मा शोमे, और गुरदास मान भी हैं. फिल्म में गाने नहीं हैं. ज़रूरत भी महसूस नहीं होती. बैकग्राउंड में चलते हैं गाने. फिल्म खत्म होने पर फैज़ की नज़्म ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ बजती है. ‘मंटोईयत’ नाम से टाइटल ट्रैक है. इस गाने को रफ्तार ने गाया है. गाने के बोल मंटो के कथन जैसे हैं. सच दिखाते हैं. हमारे भीतर चुभते हैं. खबूसूरत गाना है. नहीं सुना है तो यहां सुनिए-   

 

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