फिल्म रिव्यू: मणिकर्णिका

पढ़िए Kangana Ranaut की फिल्म मणिकर्णिका का रिव्यू यहां.

मैं स्तब्ध हूं. शब्दहीन हूं. सदमे में हूं.

मम्मी की याद आ रही है. क्योंकि मेरी मम्मी कहती हैं, जीवन में इंसान जब सब कुछ हार जाए, तो भी मां-बाप के पास वापस लौट सकता है. मैंने अपना धैर्य हार दिया है. जो बचा-खुचा है, उसे पांडवों की भांति इस रिव्यू में लगा रही हूं.

मणिकर्णिका फिल्म के कपाट जब खुलते हैं, तो ऐसा लगता है कि माहिष्मती में इंटर हो रहे हैं. वैसा ही वैभव. वैसी ही हरियाली. शायद उसमें थोड़ा कुंतल राज्य भी मिला हुआ है. मणिकर्णिका घाट पर बच्ची मिली, उसका नाम मणिकर्णिका रख दिया. शुरुआत में ही पता चल जाता है कि बच्ची नाम करेगी. दीर्घायु होगी या नहीं, इसका कह नहीं सकते, लेकिन नाम ज़रूर करेगी. बढ़िया.

mann-6-750x500_012419104821.jpgतस्वीर: ट्विटर

1.फिल्म की कहानी सबको पता है. स्क्रीन पर उतर कर कैसी लगती है उसी का सारा खेला है. जल्दी जल्दी कुछ बातें पहले ही क्लियर कर दें आपको.

2.फिल्म लम्बी है. हद लम्बी. कम से कम 25 मिनट कट सकते थे. फिल्म तब भी वही रहती.

3.इसके ट्रेलर रिव्यू में मैंने ही लिखा था, जब लगान मेट बाहुबली विद कंगना इन लीड. इसमें एक छोटा सा बदलाव है. इसमें पद्मावती भी मिक्स हो गई है. कैसे? ये नहीं बताऊंगी. खुद देखिए.

4.कंगना की एक्टिंग जबर है. इसमें कोई दो मत नहीं है. कंगना एक अच्छी एक्टर हैं. जो रोल करती हैं उसमें डूब जाती हैं. इस किरदार का शायद बेहद ग्रैंड होना ही इसकी लिमिटेशन बन गया.

mann-2-750x500_012419104846.jpgतस्वीर: ट्विटर

5.रोल सभी ने ठीक निभाए हैं. अंकिता लोखंडे के पास जो स्क्रीन टाइम है, उसका उन्होंने गजब इस्तेमाल किया है. उनकी रेंज बढ़िया है. बेहतर इस्तेमाल हो सकती है. बॉलीवुड को उन पर नज़र रखनी चाहिए. बेहतर और बड़े रोल देने चाहिए. डैनी डेन्जोंगपा से लेकर जीशान अयूब तक की एक्टिंग में खोट नहीं निकाला जा सकता. किरदारों का जो खाका खींचा गया है, वो कमी वाला नहीं.

6. फिल्म के कुछ एक्शन सीक्वेंस बेहद अच्छे हैं. वहां स्टंट डिरेक्टर का कमाल दिखाई देता है. कंगना की प्रैक्टिस नज़र आती है. कहीं-कहीं खून नसों में तेज से दौड़ता हुआ भी महसूस होता है.

7. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि फिल्म अच्छी है. माने कि तरकारी में सब नाप से डालो, लेकिन कुछ खोट रहे और अपच हो जाए. वैसी सी फीलिंग आई.  अब वो काहे?

mnn-main-750x500_012419104918.jpgतस्वीर: ट्विटर

सबसे अव्वल कि आजादी बहुत ली गई है इतिहास में से. वो इतिहास नहीं जो अंग्रेज बताते हैं. वो इतिहास जिसको दर्ज किया गया है. रानी लक्ष्मीबाई के मामले में डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स का मुद्दा सबसे बड़ा झगड़ा था. उसकी कहीं बात नहीं की गई. जिस समय की ये बात है, उस समय भारत रियासतों में बंटा हुआ था. जिस भारत को हम आज आज़ादी के बाद से जानते हैं, उस समय कहीं नहीं था. पर चलिए, कोई नहीं. फिल्म है, लोग कहेंगे जाने दो. जाने देते हैं.

फिल्म में महिलाओं को मजबूत करने की बात बहुत बार कही गई है. इसमें कंगना खुद औरतों को लड़ाई की ट्रेनिंग देती नज़र आई है. देख कर बहुत अच्छा लगता है. लेकिन फिल्म में कई ऐसे मोमेंट आते हैं जहां पर लगता है कि ये सब बस मुंह देखली की बातें हैं. गंगाधर राव का चूड़ी पहनकर रहना क्योंकि वो अंग्रेजों के सामने सिर झुका कर रहते हैं, झांसी को सुहागन रखने की बात कहना, ये सब कुछ खटकता बहुत है. 

mann-5-750x500_012419105011.jpgगंगाधर राव का किरदार जिशु सेनगुप्ता ने निभाया है, झलकारी बाई का अंकिता लोखंडे ने.

विजुअल इफेक्ट्स कहीं-कहीं बेहद खराब हैं. बैकग्राउंड पर किसी ने एडिटिंग के वक़्त ध्यान नहीं दिया शायद. कई जगहों पर अंग्रेज सैनिक ऐसे गिर जाते हैं जैसे किसी ने पैरों के नीचे से कालीन खींच लिया हो. दूर से किसी को आते देख कर फिसल जाते हैं. ये छोटी-छोटी चीज़ें फिल्म में ध्यान भटकाती हैं. कई सीन ऐसे हैं जो ज़रूरत से ज्यादा खींचे गए हैं. बात अगर कैरेक्टर एस्टाब्लिश करने की होती, तो वो काम 5 मिनट में भी किया जा सकता है. लेकिन उसी बात को खींचने में आधा घंटा लगा दिया गया है. इससे बचा जा सकता था. एक जगह तो शॉक इफेक्ट के लिए डाले गए सीन में हॉल में बैठे सारे लोग हंस पड़े थे. इसी से अंदाजा लगा लीजिए.

mann-4-750x500_012419105103.jpgकुछ सीन बेहद अच्छे बन पड़े हैं, लेकिन वो बेहद कम भी हैं.

अंग्रेज से याद आया. फिल्म में ये फिरंगी अपने आप से भी बात करते हैं तो हिंदी में क्यों करते हैं,ये समझ नहीं आया. कई गोरे लोग तो फिल्म में सिर्फ मरने के लिए रखे गए थे. एक तलवार खाई और धपाक से नीचे. अच्छा बदला है. जो बोलने वाले रोल्स में हैं, उनको देखकर भी ये नहीं लग रहा था कि वो अंग्रेजों की सेना के अधिकारी हैं. अगर उस ज़माने में एकता कपूर होतीं, तो उनके सीरियल में लीड विलेन रोल इन्हीं को मिलता. कसौटी जिंदगी की की कोमोलिका की जगह कैमलिन होते, और कहानी घर घर की वाली पल्लवी की जगह पॉल.

डायलॉग में नयापन नहीं है. कहीं-कहीं थोपे हुए और दोहराव वाले लगते हैं. इन सबके बीच अजीबोगरीब कुछ ऐसे पल आते हैं जहां यकीन नहीं होता कि कंगना इस तरह के सीन के लिए हां भी कह सकती हैं. एक सीन में उनका घोड़ा किले पर से कूदता है, और सीधा चारों पैर पर ज़मीन तक पहुंच जाता है. किला बहुत उंचा है. लेकिन सीन में ऐसा मालूम देता है मानो किचन के उपरी ताखे पर से खीर चट कर बिल्ली कूदी हो. ये सब फिल्म में इन्वोल्व होने के एक्सपीरियंस से बाहर खींच लाते हैं.

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फिल्म में डिरेक्टर के क्रेडिट में पहले कंगना का नाम आता है. उनके बाद कृष जैन का जिन्होंने ये फिल्म शुरू से डिरेक्ट की थी. पैचवर्क का काम कंगना ने किया था. इस बाबत पहले जब उनसे एक इंटरव्यू में पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि वो डिरेक्टर का क्रेडिट नहीं लेंगी. खैर, मन ही तो है. बदल गया होगा.

जैसे हमारा बदल गया है. ये फिल्म देखने के बाद.

लेखक की पाती: मुझे वन्दे मातरम् पूरा याद है. कमेन्ट में देशद्रोही लिखेंगे तो समझ जाऊंगी आपने रिव्यू पूरा नहीं पढ़ा. जै हो.

 

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