फिल्म रिव्यू: लैला मजनूं
प्यार के पागलपन की वही कहानी.
‘तुझे क्या लगता है, ये हम कर रहे हैं? हमारी कहानी लिखी हुई है. ये दुनिया क्या? दुनिया के लोग क्या? हम खुद भी इसे नहीं बदल सकते...’
ये कहानी लिखी हुई है. पहले भी कई बार हम इसे देख चुके हैं. सुन चुके हैं. पढ़ चुके हैं. बचपन से दो नाम जो हमने हमेशा साथ सुने हैं, ‘लैला - मजनूं’. ये कहानी एक बार फिर पर्दे पर आई है. इसके पात्र वही हैं, कहानी वही है, कहानी का तेवर वही है लेकिन फिल्म अलग है. फिल्म की खासियत है कि आप एक सैकेंड के लिए भी स्क्रीन से अपनी नज़रें नहीं चुरा पाएंगे.
लैला-मजनूं की कहानी अरब की लोककथा है. इसकी सच्चाई का तो नहीं पता लेकिन इसके कई रूप हमने सुने हैं. एक किवदंती के हिसाब से लैला मजनूं एक दूसरे से प्यार करते हैं और एक साथ रहते हैं. दूसरी के अनुसार लैला को देखते ही मजनूं को उससे प्यार हो जाता है. दोनों ही कहानियों में आखिरकार मजनूं पागल हो जाता है क्योंकि उसे लैला से अलग कर दिया जाता है.
लैला-मजनूं फिल्म शुरू होती है लैला के साथ. लैला, एक कश्मीरी रूढ़िवादी परिवार की आज़ाद लड़की. रोज़ कॉलेज जाने के लिए लेट होती है. अपने पिता के कहने पर कि तुम थोड़ा जल्दी क्यों नहीं उठतीं तपाक से जवाब देती है आप सिगरेट क्यों नहीं छोड़ देते. जो लड़कों को टहलाती है. अपने पीछे घुमाती है. आज में जीती है. कहती है – ‘कल को मेरी शादी करा दी जाएगी और मैं कर भी लूंगी लेकिन ये जो आज है इसे तो अपनी मर्ज़ी से जी लूं.’
जो अपनी किस्मत को बदलना नहीं चाहती. जो होगा उसे मंज़ूर है लेकिन जो समय उसके पास है, उसके हर पल को अपने भीतर समा लेना चाहती है. जो प्यार नहीं करना चाहती. बस उसे एक्सप्लोर करना चाहती है, एक्स्पीरियेंस(अनुभव) करना चाहती है. वो कहती है कि मैं इस प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ने वाली. अब वो प्यार में पड़ती है कि नहीं इसके लिए तो आपको फिल्म देखना होगा.
इम्तियाज़ अली की हर फिल्म में उनके कैरेक्टर्स पागल होते हैं. पागल से यहां मेरा मतलब है दुनिया से अलग होते हैं. वो बगावत करते हैं. लीग पकड़ कर नहीं चलते. इस फिल्म को इम्तियाज़ ने लिखा है और अपनी इस काबिलियत को उन्होंने इस कहानी में भी बखूबी इस्तेमाल किया है. एक तरफ लैला है जो सपनों में जीती है. एक तरफ कैस भट्ट जो हकीकत को सपना समझ कर जीता है. कैस पूरे शहर में बदनाम है. लड़कीबाज़ है, शराबी है, जुआरी है, ड्रग्स लेता है. लैला ये सब सुन कर डरती नहीं है. कहती है ‘इंट्रस्टिंग’.
लैला का किरदार निभाया है तृप्ति डिमरी ने और कैस बने हैं अविनाश तिवारी. इन दोनों के अलावा फिल्म में सुमित कौल हैं. सुमित ने इब्बन का किरदार निभाया है. इब्बन नेता है और लैला के पिता का करीबी बनने की कोशिश करता है. फिल्म में मीर सरवर और साहिबा बाली ने भी महत्वपूर्ण किरदार निभाए हैं.
फिल्म का सेकेंड हॉफ फर्स्ट हॉफ से ज़्यादा स्ट्रॉन्ग है. इस फिल्म के किरदार घर से, समाज से, दुनिया से टूटे हुए हैं. वो अधूरे हैं लेकिन अपने आप में पूरे हैं. कैस का किरदार प्यार को उसके पागलपन में जीता है. फिल्म का ट्रेलर इस डायलॉग के साथ शुरू होता है-
‘प्यार का प्रॉब्लम क्या है न कि जब तक उसमें पागलपन न हो वो प्यार ही नहीं है.’
यही पागलपन पूरी फिल्म में देखने को मिला है. एक जगह कैस नमाज़ पढ़ रहे लोगों के सामने होता है. उसकी हरकतों से उनकी नमाज़ में दखल पड़ता है. वो लोग गुस्सा हो जाते हैं. उसे मारने लगते हैं. कैस कहता है-
‘मैं अपने माशूक से बात कर रहा था. मैंने आप लोगों को नहीं देखा. मेरी ग़लती है लेकिन आप भी तो अपने माशूक से बात कर रहे थे आपने मुझे कैसे देख लिया?’
तृप्ति की ये पहली फिल्म है. अविनाश पहले भी कई फिल्मों और सीरियलों में देखे जा चुके हैं पर बतौर लीड ये उनकी भी पहली फिल्म है. तृप्ति ने अपने किरदार को अच्छा निभाया है लेकिन जिसकी एक्टिंग असर छोड़ जाती है वो हैं अविनाश तिवारी. अविनाश की एक्टिंग इस फिल्म की जान है. कुछ दृश्यों में वो इतने मंझे हुए कलाकार नज़र आते हैं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं ये पचा पाना मुश्किल हो जाता है. उनकी एक्टिंग बिल्कुल सच लगती है. कोई बनावटीपन नहीं, कोई एक्स्ट्रा एफर्ट्स नहीं. फिल्म में लगभग 10 गाने हैं लेकिन ये कहीं आपको बोर नहीं करते.
फिल्म प्यार की कोई परिभाषा नहीं गढ़ती. न ही नैतिकता का पाठ पढ़ाती है. बस प्यार दिखाती है. एक तरह की लव स्टोरीज़ का 90 के दशक और उसके बाद तक छाप रहा. ये लव स्टोरी इस नीरसता को तोड़ती है. आज कल बन रही फिल्मों की खासियत ही यही है कि ये आपको कोई निर्णय नहीं सुनाती. सही-गलत नहीं बताती. बस परिस्थिति को आपके सामने रख देती हैं. अब आपको तय करना है कि आप कहानी से क्या ले जाते हैं.
लैला मजनूं निर्देशित की है साजिद अली ने. साजिद मशहूर निर्देशक इम्तियाज़ अली के भाई हैं. बतौर निर्देशक उनकी ये पहली फिल्म है. इम्तियाज़ अली के साथ एकता कपूर, शोभा कपूर और प्रिति अली ने इस फिल्म का निर्माण किया है. फिल्म इम्तियाज़ और साजिद अली ने लिखी है. लेकिन इसे देखकर ये बता पाना बहुत मुश्किल है कि ये फिल्म इम्तियाज़ ने निर्देशित नहीं की है. उनकी हर कहानी की तरह इसमें भी उनकी बगावत की छाप है. लड़कियों को जिन आज़ाद और बगावती किरदारों में इम्तियाज़ ने दिखाया है वो कोई और शायद ही कर पाए. चाहे जब वी मेट की गीत हो. या द अदर वे की रेवा. या तमाशा की तारा. या लैला मजनूं की लैला. इन्हें एक पंक्ति में बताना हो तो लैला मजनूं का ये गाना बिल्कुल सही समझाता है-
‘गई काम से, ये लड़की तो गई काम से...’
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