उस दिल्ली वाली गर्लफ्रेंड के नाम, जिसे हीरो छोड़ गया

टूटते दिल को जोड़ लेने की आज़ादी लड़कियों के हिस्से में कब आएगी?

प्रेरणा प्रथम प्रेरणा प्रथम
अप्रैल 09, 2018
आंसू बहाती लड़कियां अब भी सिनेमा में वहीं हैं जहाँ पहले थीं.

‘देखिये लड़की तो अच्छी लगी हमें. लेकिन वो क्या है ना कि थोड़ी मॉड है. अब हमारे घर में थोड़ी दिक्कत होगी.’

‘नहीं नहीं, ऐसा भी कुछ नहीं. शादी हो गई एक बार तो एडजस्ट कर लेगी. आप फिकर मत कीजिए.’

‘फिकर तो करनी पड़ती है न भाई साहब. अब हम लोग तो किसी बात के लिए रोकते-टोकते नहीं हैं. लेकिन शादी-शुदा लड़की ऑफिस जाएगी, वहां दस लोगों से मिलेगी-जुलेगी. बाहर भी आना-जाना होगा ही. ये सब तो ज़रूरी होता है. फिर कपड़े भी वैसे ही पहनने होंगे.’

‘तो आपका क्या विचार है?’

‘देखिये नौकरी छोड़ने को तो हम नहीं कहेंगे. आज के ज़माने में एक आदमी की कमाई से खर्च कहां चलता है. इनको साथ रहना है तो कमाना तो होगा ही. लेकिन बस थोड़ा हमारे हिसाब से रहे. इतनी मॉड रहेगी तो हमारे घर में नहीं खपेगी.’


ये कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं, मेरी जान-पहचान की रिश्तेदारी में हुई एक बातचीत का हिस्सा है. जिसके बारे में हमें उस लड़की से पता चला. 2018 में भी किसी लड़की की सबसे बड़ी उपलब्धि किसी ‘अच्छे घर’ में ‘खपने’ से लगाई जाती है. और कैरेक्टर के यही बाइनरी फिल्मों में भी शुरू से दिखाए जाते रहे है. फिल्में ही क्यों? पॉपुलर कल्चर का भी यही हाल है.

मॉडर्न औरत कहते ही दिमाग में एक खाका खिंच जाता है. छोटे कपड़े पहनने वाली, शराब पीने वाली, सिगरेट फूंकने वाली. कई लोगों के साथ सेक्स करने वाली. किसी भी खुले दिमाग वाली लड़की को, जो खुद अपना ध्यान रखने के काबिल है, उसे आराम से चलते-फिरते मॉडर्न कह दिया जाता है. इसके अलावा कोई और भाषा इस्तेमाल नहीं होती उसके लिए.

ये ‘मॉडर्न औरतें’आम तौर पर बड़े शहरों में दिखाई जाती हैं जहाँ पर उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं होता. एक हाथ में वाइन की बोतल लिए. दूसरे हाथ से सिगरेट फूंकती ये लड़कियां कब मॉडर्निटी का एक कैरिकेचर बना कर परोस दी जाती हैं,किसी को पता भी नहीं चलता. विदेशों और बड़े शहरों में पार्टियां करने वाली ये लड़कियां अक्सर मां-बाप से अलग रहती हुई दिखाई जाती हैं.

कॉकटेल फिल्म की वेरोनिका (दीपिका पादुकोण)अपनी मर्ज़ी से बार जाती है, डिस्क में नाचती है, लड़कों को घर लाती है, उनके साथ सेक्स करती है. लेकिन उसकी लाइफ का यही एक इकलौता आस्पेक्ट है जो हम देख पाते हैं. वो क्या काम करती है, कैसे ट्रेवल करती है, ये सारी बातें कभी भी किसी फिल्म में नहीं दिखाई जातीं. उसकी ज़िन्दगी में दूसरी औरतों के साथ उसके कैसे सम्बन्ध हैं, उसकी साइकी (Psyche यानी मनोदशा) जैसी है वैसी क्यों है. क्या उसे भी कूल दिखने के लिए कूल लगना है, या फिर वो सच में बिना किसी प्रेशर में आये बिंदास रहती है? इन सवालों के जवाब नहीं मिलते.

कॉकटेल की वेरोनिका को आज़ादी के मायने खुद तलाशने को नहीं मिले. कॉकटेल की वेरोनिका को आज़ादी के मायने खुद तलाशने को नहीं मिले.

हाल में बन रहा जो ऑफ-बीट सिनेमा है, यानी वो सिनेमा जो लीक से हटकर चलता हो.उस सिनेमा में किरदारों को एक नया पहलू देने की कोशिश की जा रही है. जो लड़के हैं वो अपने लिए एक नई दुनिया ढूंढ रहे हैं. लाइफ में सेट किये हुए गोल्स को छोड़-छाड़ कर किसी के पीछे भाग रहे हैं. और मुड़ कर अपनी आज़ादी से फिर यू-टर्न भी ले रहे हैं. क्योंकि उनको अपनी लाइफ ‘फिगर आउट’ करनी है. वो फ़िल्मी ही नहीं बल्कि अब असल दुनिया के भी पोस्टर बॉय हैं. चिबिल्ली आँखों वाली लड़की को पीछे छोड़ पछताते हुए, लौट कर माफ़ी मांगते हुए. प्यार में पड़ते, डूबते-उतराते, मां बाप से लड़ते-झगड़ते. इंसानों वाले किरदार.

रॉक ऑन में फरहान अख्तर एक सपने को जीने की कोशिश में गिरते-सँभलते हुए दिखाई देते हैं. ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा में तीनों दोस्त – फरहान, ह्रितिक, और अभय, अपनी-अपनी मुश्किलों से जूझते दिखाए गए हैं. आपस में सवाल करते, जवाब ढूंढते, साथ-साथ उगकर अलग होते जाने का दर्द बांटते ये किरदार परदे पर अब थ्री-डी में उभर रहे हैं. जीते हुए बीच में रूककर अपने जीने और होते जाने पर सवाल करने की जो ऐसी आज़ादी इन किरदारों को दी गई है, वो एक नई तरह की आज़ादी है. एक तरह की मॉडर्निटी है जिससे महिला किरदार अछूते रखे गए हैं अब तक.

अपनी गलतियां करने की आज़ादी फिल्मों में लड़कों को खुले हाथों मिली. अपनी गलतियां करने की आज़ादी फिल्मों में लड़कों को खुले हाथों मिली.

एक टेस्ट होता है फिल्मों का, बेकडेल टेस्ट. 1985 में एलिसन बेकडेल नाम की आर्टिस्ट की कॉमिक्स आई थी- डाइकीज़ टू वॉच आउट फॉर. उनके नाम पर ही इस टेस्ट का नाम पड़ा. उनकी इस कॉमिक बुक में एक किरदार होती है जो किसी भी फिल्म मं काम करने के लिए तीन शर्तें रखती है . उसी से बना ये टेस्ट और वही शर्तें उठा ली गईं. आज बेकडेल टेस्ट में पास होने के लिए किसी भी फिल्म में वही तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए:

1. कम से कम एक सीन में दो महिला किरदार होने चाहिए.

2. उन दोनों के नाम बताये गए होने चाहिए.

3. उन दोनों के बीच कम से कम एक ऐसा डायलॉग होना चाहिए जिसमें वो किसी मर्द के बारे में बात ना करें.

हॉलीवुड की देन है ये टेस्ट. अगर ये सारी शर्तें पूरी होती हैं तो फिल्म टेस्ट में पास. काफी पुराना टेस्ट है, सुधार की गुंजाइश है इसमें. लेकिन टेस्ट में पास होने का फायदा क्या? फायदा यही कि फिल्म को थोड़ा प्रोग्रेसिव और फेमिनिस्ट होने का तमगा मिल जाता है. बराबरी की लड़ाई डायलॉग दर डायलॉग चलती है. मजे की बात ये है कि असल में इसका कोई लेना-देना नहीं होता सच्चाई से. एक फिल्म तो इसलिए पास हो गयी थी इस टेस्ट में क्योंकि फिल्म की हीरोइन अपनी नानी से बात कर रही थी. बता रही थी कि कैसे पुरुष पादरी यानी जो प्रीस्ट्स होते हैं, वो चर्च में बच्चों का शोषण करते हैं.बात हुई ये, और जवाब में डायलाग क्या था? नानी ने लड़की से पानी का ग्लास मांगा. उनका डायलाग पूरा हो गया. तकनीकी तौर पर पूरी हो गयी ज़रूरत. फिल्म हो गयी बेकडेल टेस्ट में पास. और तो क्या ही चाहिए.

फिल्म थी स्पॉटलाइट. बेस्ट फिल्म का अकादमी अवार्ड मिला इसे 2015 में. अकादमी अवार्ड मतलब ऑस्कर. असली घटना पर बनी फिल्म थी.

हॉलीवुड फिल्म स्पॉटलाइट का पोस्टर. हॉलीवुड फिल्म स्पॉटलाइट का पोस्टर.

ये तो हॉलीवुड की बात हुई जो आगे बढ़ने की बातें कर रहा है. जहाँ कोशिशें चल रही हैं कि फिल्मों में औरतों को एक ऐसा प्लेटफार्म दिया जाए जिसपर वो अपने-आप को एक इन्सान के तौर पर देख सकें. उनको खुद पर भरोसा और शक, दोनों करने की आज़ादी हो. उनको लड़कों को पीछे छोड़ नौकरी के पीछे भागने की आज़ादी हो, जिसका पछतावा भी उनको करने का मौका मिले. उसे सेलेब्रेट करने का भी. उसे वापिस लौट कर गले लगा लेने का. या अगली फ्लाइट पकड़ कर फ़्रांस की यूनिवर्सिटी में खुद को एनरोल कराकर नयी डिग्री लेने का. झारखंड के हजारीबाग से निकलकर मुंबई पर छा जाने का. या वहीं पर स्कूल में टीचर हो कर अपने हिस्से का आसमान जी लेने का. इस हिस्से की आज़ादी औरतों के दामन में अब तक नहीं आई है. फिल्मों में मर्द सोच रहे हैं, औरतें सिर्फ प्यार कर रही हैं. दिल और दिमाग की लड़ाई में औरतों का एक कोना काट कर अलग कर दिया गया है. वो वहीं खड़ी इंतज़ार करती हैं कि शायद कोई उन्हें आकर प्यार करेगा, और उसी में वो मुकम्मल हो जायेंगी.

फिल्मों में क्वीन एक ही होती है. औरतें किंगमेकर बनने के सिंड्रोम से निकलेंगी, तो शायद क्वीन भी बन जाएँ. वैसी फिल्मों का इंतज़ार अभी जारी है.

 

 

 

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