क्या होता है जब एक दलित लड़की किराए पर घर मांगने जाती है

जिन आंटी को अपने ठाकुर होने पर गर्व है, उनकी बेटी को अगर अनजान शहर में घर न मिले तो उन्हें कैसा लगेगा?

जातिगत भेदभाव से पीड़ित लोग समाज की खींची रेखा से पीछे ही रह जाते हैं. फोटो क्रेडिट - Reuters

'तीनों ठाकुर तो हो न?'

-'नहीं आंटी, मैं दलित हूं, ये मुसलमान और इनका पता नहीं.'

ये बोलकर मैं निकल आई.

ये सवाल मैंने पहली बार अपने जीवन में सुना. आज से पहले इस तरह की परिस्थिति का सामना मैंने कभी नहीं किया था. हां, एक बार मेरी मित्र(जिसके साथ मैं रहती थी) की बुआ जी ने कहानी की तरह एक घटना सुनाई थी. हुआ कुछ यूं, बुआ जी बता रही थीं कि किस तरह उनके शहर में बदलाव हो रहा है. बातों-बातों में उनकी सोच उनके शब्दों से होते हुए मेरे कानों तक पहुंच ही गई. उनका कहना था -

'हमाए पीछे वाले मोहल्ले में का हए न कि ऊ जने रहत हैं, ऊ ही जिनके हाथ को हम पानी भी न पीत हंए. उन जनों को जरो धरम-करम को होस नहीं रह गओ हए, न तो कौनो सरम रह गई हए गुड़िया(मुझे सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा). अब हम के बतेएं तुम्हैं? हम न पहले तो वो जो पटपटिया(ऑटो) होत है न, उसमें कभऊ जेत नईं और कभऊं चले गएं तो जानत हो ऊ औरतें(पीछे के मोहल्ले की औरतें, जिनके हाथ का पानी पीना भी मोहतरमा के लिए अधर्म था(अगर धर्म होता है तो!)) जरा न हिलत हैं. हमऊं शरम के मारे उतर जै हैं पर ऊ बेशरमी बैठी रहत हंए. बे देखऊं लैं हएं कि हम आ रहे तभऊ न उतरत हएं.'

(हमारे पीछे वाले मोहल्ले में छोटी जात के लोग रहते हैं, वो लोग बेशर्म हो गए हैं. ऑटो में हम जाते हैं तो वो लोग उतरते नहीं हैं. उनके चढ़ने पर हम ही उतर जाते हैं.)

इस पर मेरा मन तो किया कि मैं उन्हें कहूं 'बुआ जी, जिस पलंग पर बैठकर आप अपनी महानता की यह कथा सुना रही हैं, वो भी उस ही जाति के इन्सान द्वारा इस्तेमाल किया जाता है जिसके हाथ का आप पानी भी नहीं पीतीं. और अभी थोड़ी देर पहले जिस इन्सान ने आपको पानी लाकर दिया है और आपने बड़ी खुशी से पीकर कहा है 'आह, ठंग पड़ गई गरे को, बहार कित्ती घाम है.' वो भी उस ही जाति का है जिसके हाथ का आप पानी भी नहीं पीतीं.

उनकी उम्र का लिहाज़ और दोस्ती की इज़्ज़त रखने के ख्याल ने यह इजाज़त नहीं दी. दोस्त को फोन किया और मैं बाहर आ गई. इस घटना को मैं भूल गई थी. दो दिन पहले हुए वाकये ने फिर याद दिलाया कि जाति सम्बन्धित जड़ें इन्सान की सोच और मन में कितने गहरे पैठे हुई हैं.

मैं घर ढूंढ रही हूं. घर ढूंढने के दौरान घर न देने के लिए लोगों ने बहुत से अतार्किक कारण दिए. एक मोहल्ले में हर जगह सुनने को मिला कि 'लड़कियों को घर नहीं देते हम.' क्यों भाई, लड़कियों ने क्या गुनाह किया है? परिवार और लड़कों को तो घर दे देंगे पर लड़कियों को नहीं. एक जगह तो मकान मालकिन ने कहा कि आप तो रह लो लेकिन कोई आ नहीं सकता घर में, यहां तक कि माता-पिता भी नहीं. इसके पीछे उनका तर्क था कि किसी के भी आने पर पानी ज़्यादा इस्तेमाल होगा और जल्दी खत्म हो जाएगा.

एक जगह तो अजीब समस्या सामने आई, हम घर देखने पहुंचे तो हमें बड़े प्यार से घर दिखाया. सब कुछ तय किया. अंत में पूछा कि आप लोग पढ़ते हो? हमने कहा नहीं नौकरी करते हैं, पत्रकार हैं. उनका पूरा व्यवहार ही बदल गया, तपाक से बोले 'मीडिया से हो तो हम घर नहीं देंगे आपको.' कारण पूछने पर बिना जवाब दिए हमें चले जाने को को कहा.

इन सब कारणों को अगर व्यक्तिगत परेशानियों या पूर्व घटित समस्याओं(जैसा कि हमें पता चला कि मीडिया की लड़कियों को घर इसलिए नहीं देते क्योंकि पहले रहने वाली लड़की जो कि मीडिया से थी उसने वहां बहुत तमाशा किया था) के चलते ठीक मान भी लें, तो जाति पूछ कर घर देने वाली महिला के तर्क को मैं किस तरह ठीक मानूं? क्या सिर्फ एक विशेष जाति के लोगों को ही घर से बाहर जाने, पढ़ने-लिखने और नौकरी करने का अधिकार है? बाकि लोग अपने ही घर में रहें? जिस हालत में पीढ़ियों से रह रहें हैं? फिर आप ही लोग हैं जो कहते हैं वो लोग तो कितने गंदे हैं, गंदगी में रहते हैं. अगर 'गंदगी में रहने वाले' लोग पढ़ेंगे-लिखेंगे नहीं, समाज द्वारा निर्धारित जाति आधारित काम के इतर कुछ और नहीं करेंगे, जागरुक नहीं होंगे, देश-दुनिया को नहीं जानेंगे तो कैसे अपने खोल से बाहर निकलेंगे? अपने चारों तरफ बनी चार-दीवारी को कैसे तोड़ पाएंगे?

आज से 2 साल पहले 'जूठन' पढ़ी थी, जूठन ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा है. उसमें वो बताते हैं कि उन्हें उत्तराखंड राज्य में घर किराए में नहीं मिला क्योंकि वो दलित हैं. 'जूठन' में वाल्मीकि जी ने अपने जीवन की बहुत सी घटनाओं का ज़िक्र किया है. उन्हें पढ़ कर मेरी सोच के दायरे बहुत अधिक हिल गए. मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ भी लोगों के साथ होता होगा. उपन्यास पढ़ कर मुझे लगा कि यह बात सच है कि भारत में जाति, इन्सान से बहुत पहले है. जाति ही इन्सान की पहचान है. जूठन में वाल्मीकि जी एक जगह लिखते हैं-

'मास्टर हम लोगों को रोता देखकर लगातार गालियां बक रहा था. ऐसी गालियां जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दूं तो हिंदी की अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा. क्योंकि मेरी एक कहानी 'बैल की खाल' में एक पात्र के मुंह से गाली दिलवा देने पर हिंदी के कई बड़े लेखकों ने नाक-भौं सिकोड़ी थी. संयोग से गाली देनेवाला पात्र ब्राह्मण था. ब्राह्मण यानी ब्रह्म का ज्ञाता और गाली...!'

इस तरह का कोई अनुभव मुझे व्यक्तिगत तौर पर कभी नहीं हुआ था. पहली बार मैं इस तरह की समस्या से दो-चार हुई. मुझसे मेरी जाति पूछने वाली महिला ने पूछा था 'ठाकुर तो हो न?' वर्ण व्यवस्था के हिसाब से ऐसा माना जाता है कि 'ठाकुर' क्षत्रिय होते हैं. ज़्यादातर क्षत्रिय सेना में काम करते थे. इनका काम राजा के साम्राज्य और लोगों को दुश्मनों से बचाना होता था. दूसरों को बचाने वाले लोग उन पर हमला कर रहे हैं! (भले ही शब्दों से)

मुझे लगा कि मैं उन आंटी को पूछूं कि अगर आपके बच्चे बाहर जाएं और उन्हें उनके धर्म या जाति की वजह से रहने को घर न मिले तो कैसा लगेगा आपको? लेकिन ज़मानों से जड़ हो चुकी सोच की मजबूत दीवार को मेरा एक वाक्य कहां ध्वस्त कर पाता? मैंने अपना जवाब दिया और बाहर आ गई. मेरा व्यवहार उन्हें बुरा लगा होगा लेकिन उनका प्रश्न बेहद घटिया और अस्वीकार्य था. बड़ों का सम्मान किया जाना चाहिए. बिल्कुल! किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसे बड़े लोगों का सम्मान करना मेरे लिए असाध्य है.

और जो कथित 'ऊंची जात' के लोग सीना चौड़ा कर ये कहते हैं कि वो जाति नहीं मानते, बताएं कि क्या अपने घर में मेड और मजदूरों को उन्हीं गिलासों में पानी देते हैं जिसमें खुद पीते हैं? वो बताएं कि अगर उनकी बेटी को किसी दलित लड़के से प्रेम हो जाए, तो उसकी शादी खुशी से करेंगे?

 

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