जब देश बंट रहा था, घरों के आंगन सुलग रहे थे: खदीजा मस्तूर की किताब 'आंगन' का रिव्यू

जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान अलग हुए, बॉर्डर से दूर लोगों के घरों में क्या घटा.

प्रेरणा प्रथम प्रेरणा प्रथम
दिसंबर 07, 2018

किसी किताबघर जाएं, वहां किताबें करीने से अलग-अलग टाइटल के नीचे रखी होंगी. कहानियों की किताबें एक जगह होंगी, कविताओं की दूसरी जगह. आत्मकथाएं एक जगह होंगी. युद्ध पे आधारित किताबें एक जगह. साइंस की एक जगह. अगर इस तरह देखा जाए तो ख़दीजा मस्तूर की किताब – आंगन भारत विभाजन की किताबों के तहत रखी जाएगी. रखी जाती भी है. लेकिन सही मायनों में ये विभाजन की किताब नहीं. उससे कहीं बढ़कर है.

आमतौर पर जब विभाजन से जुड़े साहित्य की बात की जाती है, तो खून खराबे और उस समय हुए अत्याचारों की कहानियां सामने से घूम जाती हैं. जिन्होंने वो समय नहीं देखा, उनके कानों में मंटो की सकीना चीखती है. अब्बू...

ग़दर का तारा सिंह लालटेन लिए स्टेशन पर लाशों से भरी ट्रेन आते हुए देखता है.

पिंजर की पूरो अपनी लज्जो को ढूंढती हुई भीड़ में धक्के खा रही होती है. 

pinijar_750x500_120818122753.jpgपिंजर अमृता प्रीतम की लिखी रचना है. उस पर बनी फिल्म में उर्मिला मातोंडकर ने कमाल का अभिनय किया था.

तमस के हरनाम सिंह और बन्तो को एहसान का बेटा घर से बीच रात को निकाल देता है.

थोआ खालसा की औरतें कुएं में कूदती जा रही होती हैं. 

thoa-khalsa-well_750x500_120818122836.jpgथोआ खालसा का वो कुआं जिसमें औरतों ने कूद कर जान दी थी. हमले से अपनी इज्जत बचाने के लिए.

एक साथ कई छवियां, आवाजें, फुसफुसाहटें गड्ड मड्ड हो जाती हैं. ऊपर दी गुड़-गुड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मूंग दी दाल ऑफ़ दी पाकिस्तान एंड हिन्दुस्तान ऑफ़ दी दुर्र फिट्टे मुंह.

लेकिन ये सब कुछ बॉर्डर के आस पास हो रहा था. बॉर्डर से दूर जो भारत आजादी की लड़ाई में लगा हुआ था, वहां तक इसकी धनक पहुंच रही थी. अफ़सोस इस बात का था, कि वो घर के बाहर दालानों तक पहुंच  कर वापस लौट आता था. गन्ही बाबा के नाम का जयकारा लोग लगाते थे, लेकिन वापस लौटते हुए घर की चौखट तक उनकी बातें वही तूर दाल और मोटे चावल की चिंता तक आकर अघा जाती थीं. इन बातों की, इस जंग की सीमा घर के आंगन से काफी पहले खींच दी जाती थी.

उस सीमारेखा के भीतर क्या होता था, इसी का खाका खींचता है खदीजा मस्तूर का उपन्यास, आंगन. उर्दू में लिखी गई इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद 2000 में The Inner Courtyard के नाम से हुआ. नीलम हुसैन ने इसका अनुवाद किया था. अब जाकर 2018 में डेज़ी रॉकवेल ने दुबारा उसका अनुवाद किया है, The Women’s Courtyard के नाम से. 

aangan-main_750x500_120818122913.jpgसांकेतिक तस्वीर: ट्विटर

इस उपन्यास की मुख्य किरदार आलिया है. घर में उसकी मां हैं, अब्बा हैं, करीमन बुआ जो खाना बनाती हैं. उसके चचा. चाची. बहन तहमीना. बुआ का बेटा सफ़दर. बड़ी चाची का बेटा जमील. चम्मी, उसके रिश्ते की बहन. पड़ोस के हिन्दू परिवार से उसकी सहेली बनी कुसुम. दूकान संभालने के लिए असरार मियां हैं जिनको हर कोई दुरदुराता रहता है.

घर के मर्द आज़ादी की लड़ाई में अपनी अपनी तरह उलझे हुए हैं. आलिया के अब्बा कांग्रेस की तरफ हैं. आलिया की मां को इस बात से परेशानी है. हर समय वो इससे चिढती रहती हैं, और अपने भाग्य को कोसती रहती हैं कि किस जगह ब्याह हो गया. जमील और चम्मी मुस्लिम लीग के पैरोकार. एक आंगन के बीच सिमटी इन औरतों की जिंदगी दिखा देती है कि विभाजन के दौरान घरों के भीतर क्या चल रहा था. अधिकतर मुस्लिम घरों की तो ये कहानी थी ही, हिन्दू घरों में भी हालात अलग नहीं थे. घर के  भीतर का हिस्सा औरतों के लिए होता था, बाहर का मर्दों के लिए.

किताब में आलिया का सफ़र दिखाया गया है, किस तरह से वो अपने ही घर के लोगों के बीच से निकलती बढ़ती सी खुद को ढूंढ रही होती है. कहानी में आलिया और उसके घरवालों को आलिया के बड़े ताऊ जी के घर जाकर रहना पड़ता है. मर्द जेल जाते हैं, जेल से वापस आते हैं. इंकलाब की बातें बैठक में होती हैं. औरतें घर में गप्पें लड़ाती हैं. दहेज़ तैयार करती हैं.

तहमीना से कुसुम तक – औरतें पैदा होने, करने और मर जाने के लिए इस्तेमाल होती हैं

muslim-women_750x500_120818122946.jpgसांकेतिक तस्वीर: ट्विटर

तहमीना और कुसुम का दबे पांव दुनिया से खुद को खींच लेना दिखाता है कि जिस जिंदगी को लेकर को जीने की तमन्ना ना हो, उसे लेकर कंधे पर ढोना एक लाश ढोने जैसा ही है. उसे झटक कर आगे बढ़ जाने में कोई बुराई नहीं. तहमीना और कुसुम दोनों को ही अपना प्यार नहीं मिलता. वो नहीं मिलता जिसके लिए उन्होंने शायद बचपन से सपने देखे थे. क्योंकि ऐसे घरों में लड़कियों के सपने वहीं तक होते हैं जहां तक उनके साथ एक मर्द चलता दिखाई देता है.

आलिया की नज़रों से देखा जाए तो उसकी मां से लेकर उसके आस पास की हर औरत एक नासमझ ड्रामा क्वीन है. अपनी बड़ी चाची के लिए शायद उसके दिल के कोने में थोड़ी नरमी है, लेकिन वो इसलिए क्योंकि उसकी बड़ी चाची कुछ बोलती नहीं है. उपन्यास की औरतें इंफीरियरिटी कॉम्प्लेक्स से जूझती नज़र आती हैं, इसकी भरपाई करने के लिए परिवार और खानदान की बड़ाई के पुल बांधते नहीं थकतीं. ख़दीजा की सफ़लता इसमें रही है कि उन्होंने बिना किसी भी किरदार को एकतरफा बनाए उनके भीतर की कमियों को सामने रखा है. औरतों के भीतर की मिसोजिनी उनके व्यवहार में किस तरह सामने आता है, ये बेहद बारीकी से खदीजा ने दिखाया. आलिया के चाचा और अब्बू बेहद प्यार करने वाले इंसान हैं. लेकिन वो उसकी नज़र से. अपने घर से बनी उनकी दूरी को आलिया जस्टिफाई कर देती है. इस उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण पॉइंट ये है कि विभाजन की बात अगर इसमें नहीं भी हो रही होती, तब भी घर के पुरुष वही होते. स्त्रियां वहीं होतीं. लड़ने, और दूर भागने के पीछे की वजहें बदल जातीं, बस.

आलिया के पीछे पड़ा जमील एक और तरह के पुरुष का प्रतिनिधित्व करता नज़र आता है. जिस तरह का किरदार किसी भी क्लासिक रोमांटिक नॉवेल में आपको दिख जाए, बिलकुल वैसा. अपने प्यार  की हद के लिए कुछ भी कर सकने की हद तक जाने वाला इंसान. पर वो असल में प्यार है भी या नहीं, इसकी जांच कौन करे. प्यार की खोज में खुद तक को मिटा देने वाली तहमीना और कुसुम का चेहरा आलिया की आंखों के सामने घूमता रहता है. 

partition_750x500_120818123053.jpgविभाजन की ये तसवीरें आम हो चुकी हैं. घरों के भीतर क्या चल रहा था, ये ख़दीजा ने दिखाया है.

चम्मी, उसकी  बहन जबरन ब्याह दी जाती है. लेकिन वो इकलौती ऐसी किरदार है जो विद्रोह के लक्षण दिखा पाती है. उसकी भावनाओं के साथ खेल करने वाले को माफ़ नहीं करती. विभाजन की कहानी जब अपने आखिरी मोड़ पर आती है, आलिया और उसकी मां इतनी सुविधा में होती हैं कि फ्लाइट पकड़ कर पाकिस्तान जा सकें. वहां पहुंच कर आलिया अपनी जिंदगी का कंट्रोल वापस लेती है. यहीं पर ख़दीजा का ये उपन्यास बाकी तरह की कहानियों से अलग हो जाता है. आलिया को प्यार के धोखे की चाह नहीं है. वो उसके पास आकर, उसके आस पास नाचकर वापस चला जाता है लेकिन वो उस पर ध्यान नहीं देती. कुछ पल को कमजोर पड़ती ज़रूर है, लेकिन हार नहीं जाती.

खदीजा के इस उपन्यास की सबसे ख़ास बात ये है कि विभाजन के नाज़ुक मसले पर जिस तरफ जाने की संभावना थी, वहां से वो अपने किरदारों को बचा ले जाती हैं. उस तरफ जाने पर चंद पलों का अटेंशन मिल सकता है. पढ़ने वाले का ध्यान खींचा जा सकता है. लेकिन खदीजा घर के भीतर को सबके सामने लाकर रखने में यकीन रखती हैं. इस किताब का अनुवाद डेजी रॉकवेल ने काफी बारीकी के साथ किया है.

खदीजा प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन की सदस्य थीं. बरेली में जन्मीं थीं. पिता तहूर अहमद खान ब्रिटिश आर्मी में डॉक्टर थे. उनकी मृत्यु के बाद खदीजा और उनकी छोटी बहन हजरा लाहौर आकर बस गए. आंगन और ज़मीन उनके दो बेहद पॉपुलर उपन्यास रहे. आंगन ने तो उर्दू साहित्य में लैंडमार्क की तरह पहचान बनाई.

डबडबाई आंखें लिए आशिक बनने का दम भरते इंसान को पीछे छोड़ जाना. जिसकी बांहों में आने के लिए न जाने कितनी नायिकाएं मर जाएं. उसे छोड़ कर अपने आप में यकीन रख आगे बढ़ जाना हिम्मत का काम था. वो हिम्मत जो शायद आज के समय में भी हर किसी में नहीं होती. आलिया में उसका होना, एक ताजा हवा के झोंके की तरह आया. तब भी, आज भी.

 

 

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