भीकाजी कामा, जो आज़ादी से 40 साल पहले ही विदेश में फहरा आई थीं आज़ाद भारत का झंडा

पति से अलग रहना मंज़ूर था, मगर देश की गुलामी नहीं.

लालिमा लालिमा
सितंबर 24, 2018
भीकाजी कामा को 33 सालों तक यूरोप में रहना पड़ा. फोटो कर्टसी- ट्विटर

'मैं यहां केवल पुरुषों को ही देख रही हूं, जो कि केवल आधे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं! यहां की माताएं कहां हैं? यहां की बहनें कहां हैं? आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि जो हाथ पालना झूलाते हैं वो एक व्यक्ति को बनाते भी हैं.' ये बात बोली थी मैडम भीकाजी कामा ने. कहां? इजिप्ट यानी मिस्र की राजधानी कैरो, यानी कायरो में. कब? 1910 में नेशनल कॉन्फ्रेंस हुई थी, तब कहा था.

22 अगस्त 1907, जर्मनी के स्टटगार्ट में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस हुई. यहां पहली बार इंडिया का झंडा फहराया गया. ये काम भीकाजी कामा ने किया. झंडा फहराने के बाद उन्होंने बोला, 'यह झंडा आजाद भारत का झंडा है. मैं सभी सज्जनों से अनुरोध करती हूं कि वे खड़े होकर इस झंडे को सैल्यूट करें.'

भीकाजी कामा भारत के झंडे के साथ. फोटो कर्टसी- ट्विटर भीकाजी कामा भारत के झंडे के साथ. फोटो कर्टसी- ट्विटर

ये उस औरत की बात है, जिसने विदेश में सबसे पहले भारत का झंडा फहराया था, लेकिन उनकी लाइफ जीके के इस सवाल से आगे भी है.

33 सालों तक भीकाजी भारत से दूर यूरोप में रहीं. क्योंकि उन्हें भारत आने नहीं दिया जा रहा था. उनके सामने अंग्रेजों ने शर्त रखी थी कि अगर वो भारत वापस गईं, तो किसी भी तरह की क्रांतिकारी गतिविधि में वो हिस्सा नहीं लेंगी. बस फिर क्या था, भीकाजी कामा ने ये शर्त मानने से मना कर दिया और यूरोप में ही रुक गईं. 33 सालों तक वहां रहीं, कभी ब्रिटेन में तो कभी फ्रांस में. कई भारतीयों से मुलाकात की, आजादी की लड़ाई पर बात की, कई सम्मेलनों में भाषण दिए, क्रांतिकारी लेख लिखे, भारतीय सैनिकों से मिलीं, लगातार देश के लिए काम करती रहीं.

शादी की कहानी

भीकाजी कामा 24 सितंबर 1861 को मुंबई में पैदा हुईं, पारसी फैमिली में. जिस साल कांग्रेस की स्थापना हुई, उसी साल यानी 1885 में भीकाजी की शादी हो गई. उनके पति रुस्तमजी कामा बैरिस्टर थे. यानी उन्होंने बार एट लॉ किया था. दोनों की सोच काफी अगल थी, इसलिए शादी ज्यादा दिन नहीं चली. रुस्तमजी सोचते थे कि अंग्रेज इंडिया के लिए अच्छे हैं, लेकिन भीकाजी इसके खिलाफ थीं. उन्हें चाहिए थी देश की आजादी. इसी सोच के कारण दोनों के बीच दूरियां आ गईं, दोनों अलग हो गए. तलाक नहीं हुआ, लेकिन अलग-अलग रहने लगे. रुस्तमजी अपनी पत्नी से ऐसे नाराज हुए कि उनके अंतिम संस्कार में भी वो नहीं पहुंचे.

लंदन चैप्टर 

रुस्तमजी से अलग होकर भीकाजी सोशल वर्क में लग गईं. 1896 में मुंबई में अकाल पड़ा और प्लेग हुआ. मैडम कामा आगे आईं और लोगों की मदद की, लेकिन उन्हें भी प्लेग हो गया, हालांकि वह ठीक भी हो गईं, लेकिन उनका शरीर कमजोर हो गया. वो बीमार रहने लगीं. डॉक्टर साहब बोले, ठंडी जगह में रहो. कुछ साल बाद, भीकाजी 1902 में लंदन चली गईं.

ये झंडा इस वक्त पुणे के मराठा और केसरी लाइब्रेरी में रखा है. फोटो कर्टसी- ट्विटर ये झंडा इस वक्त पुणे के मराठा और केसरी लाइब्रेरी में रखा है. फोटो कर्टसी- ट्विटर

दो स्वतंत्रता सैनानियों से मिलीं

लंदन में मैडम कामा दो स्वतंत्रता सैनानियों से मिलीं, श्यामजी कृष्ण वर्मा और दादाभाई नौरोजी. ये वही श्यामजी हैं जिनकी अस्थियां नरेंद्र मोदी ने उस वक्त भारत मंगवाई थीं, जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे. दादाभाई नौरोजी जिन्हें 'ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया' कहते हैं, यानी महात्मा गांधी के गुरु फिरोज शाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के भी गुरु. इन दोनों के साथ मिलकर मैडम कामा लंदन में बैठकर ही भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल हो गईं.

अंग्रेजों की वो शर्त

1905 में 'इंडिया हाउस' बना, श्यामजी ने बनवाया. मैडम कामा ने इसे बना लिया अपना केंद्र. यहीं पर कामा ने कई भारतीयों को क्रांति का पाठ पढ़ाया. कुछ साल लंदन में रहने के बाद मैडम कामा भारत आने की तैयारी करने लगीं, लेकिन आ नहीं सकीं. कारण वही था, अंग्रेजों की शर्त और मैडम कामा को शर्त पसंद नहीं थी, सो वो वहीं रुक गईं और पहुंच गईं पेरिस.

पेरिस में खूब लिखा

भीकाजी ने 'पेरिस इंडियन सोसायटी' बनाई और वहीं से भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को सपोर्ट करती रहीं. क्रांतिकारी मैग्जीन 'वंदे मातरम' निकाली, खूब क्रांतिकारी लेख लिखे. कई जगहों पर भाषण दिए. ब्रिटिश हुकुमत को ये बात पसंद नहीं आई. अंग्रेजों ने फ्रांस की सरकार से कहा कि वो कामा का प्रत्यर्पण कर दें मतलब कि वापस ब्रिटेन को दे दें, फ्रांस ने मना कर दिया.

फोटो कर्टसी- ट्विटर फोटो कर्टसी- ट्विटर

छोड़ना पड़ा पेरिस

फिर आया फर्स्ट वर्ल्ड वॉर का समय, यानी साल 1914. ब्रिटेन और फ्रांस एक हो गए और कामा तो थीं ही ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ. उन्होंने तो आर्मी कैंपों का दौरा भी किया और वहां भारतीय जवानों से पूछा, 'क्या आप उन लोगों के लिए लड़ोगे, जिन्होंने तुम्हारी मातृभूमि पर कब्जा जमा रखा है?' ब्रिटिश हुकुमत को ये बात कतई पसंद नहीं आई, इस बार फ्रांस ने ब्रिटेन का साथ दिया, भीकाजी कामा को मिल गया पेरिस छोड़ने का हुक्म.

उनसे कहा गया कि वो पेरिस के बाहर रहें और हफ्ते में एक बार पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करें, लेकिन मैडम कामा तो मैडम कामा थीं, किसी के रोकने से रुकती थोड़े न. हुक्म तो मान लिया लेकिन भारतीय क्रांतिकारियों से मिलना नहीं छोड़ा. क्रांतिकारियों से मिलती रहीं और आजादी की लड़ाई में शामिल होती रहीं.

और फिर आईं भारत

भीकाजी कामा साल 1935 तक यूरोप में रहीं. 1935 में वह बीमार पड़ीं, उनकी हालत खराब होने लगी, तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की परमिशन दे दी, तब भी ब्रिटेन की सरकार ने ये शर्त रखी थी कि भारत जाकर वह राष्ट्रवादी गतिविधियों में शामिल न हों, कामा ने इसे मान लिया, क्योंकि उनकी हालत बहुत खराब थी और वह अपने देश को देखना चाहती थीं.

नवंबर 1935 में भीकाजी कामा आखिरकार मुंबई पहुंचीं, लेकिन वह ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहीं. 74 वर्षीय कामा ने मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में 13 अगस्त 1936 के दिन आखिरी सांस ली. कहा जाता है कि उनके आखिरी शब्द 'वंदे मातरम' थे.

 

 

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