शॉर्ट फिल्म रिव्यू: आंटीजी
अनमोल का किरदार अनकम्फ़र्टेबल करता है इसलिए उसका स्क्रीन पर होना ही अपने आप में एक बहुत बड़ा स्टेटमेंट है.
कुछ फिल्में इसलिए नहीं देखी जातीं क्योंकि उनको देखने की इच्छा होती है. कुछ इसलिए देखी जाती हैं क्योंकि उनका देखा जाना ज़रूरी होता है. आंखों के लिए. दिल के लिए. घबराहट से पसीज रहे हाथों के लिए. जिनको बढ़कर वो फिल्म थाम लेती है. बरबस मुस्कान ला देती है.
आंटी जी एक ऐसी ही फिल्म है.
शबाना आज़मी और अनमोल रोड्रिगेज़ की.
शबाना इस फिल्म में एक पारसी महिला हैं. परवीन ईरानी. उनके बेटे-बहू अलग रहते हैं. अनमोल एक ग्राफ़िक डिजाइनर है. गीतिका. दोनों की लाइफ अचानक से एक दूसरे के आमने-सामने आ कर अड़ती है, और फिर घुल-मिल जाती है.
हम चाहते हैं कि जिंदगी में सब कुछ हमेशा के लिए हो जाए. कुछ पल ठहर कर निकल ना जाए. मुझे याद है किसी ने कहा था, ‘अच्छी चीज़ें वही होती हैं जो कुछ पल के लिए ठहरें, फिर चली जाएं. लम्बी नहीं चलतीं वो.’
इस फिल्म में शबाना और अनमोल दोनों के बीच का रिश्ता उनकी इंडिविजुएलिटी में गहरे पैठा हुआ है. शबाना उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां पर उनसे ये एक्स्पेक्ट किया जाता है कि वो अपनी पुरानी गृहस्थी किसी तरह संभाल लें, और बस वो सारी जिम्मेदारियां निभा लें जो एक बेटे की मां, एक बहू की सास, और एक बच्चे की दादी होने के नाते उनको निभानी चाहिए. लेकिन शबाना को अपने लिए भी कुछ चाहिए. कुछ अलग जो सिर्फ उसका अपना हो.
भरी दोपहर में जब घरों की खिडकियां दरवाज़े बंद हों, तब चलते कूलर की नमी को अपने बालों में भर लेने का एहसास. या सबके खाने के बाद बच रही बर्फी का एक छोटा सा टुकड़ा जिसे किसी के साथ बांटना ना पड़े. कुछ वैसा अपना सा. जिसे कोई और नहीं समझ सकता. नहीं बांच सकता. कुछ लोग इस अहसास को किसी गाने में ढूंढते हैं, कुछ किसी जगह में, कुछ एक खुशबू में. शबाना का किरदार इसे एक टैटू में ढूंढता है.
इतनी उम्र हो गई है, ये टैटू का शौक उनको कहां शोभा देगा, लोग क्या कहेंगे, ये सब कुछ उठता है धूल की तरह. जिस तरह उठता है वैसे ही बैठ जाता है. शबाना के पास इन सबके लिए वक़्त नहीं.
अनमोल का किरदार अनकम्फ़र्टेबल करता है. उसका स्क्रीन पर होना ही अपने आप में एक बहुत बड़ा स्टेटमेंट है. अनमोल एसिड अटैक की विक्टिम रह चुकी हैं. इस फिल्म में भी वही किरदार निभा रही हैं. किस तरह उनका किरदार एक कॉर्पोरेट सेटिंग में खुद को संभाले खड़ा रहता है. अनमोल के साथ असल जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही एक्सपीरियंस हुआ था जो इस फिल्म में दिखाया गया है.
सिम्पथी. सहानुभूति. सह+अनुभूति. साथ में किसी चीज़ को महसूस करना. किसी को बताना कि वो अकेला नहीं है. बहुत नाज़ुक लाइन है. कभी भी दया और तरस की तरफ झुक सकती है. फिर वो सिम्पथी नहीं रह जाती. पिटी (Pity) हो जाती है. उसमें एक इन्सान सीढ़ी के एक पायदान ऊपर चढ़ लेता है. दूर हो जाता है. इस फिल्म में अनमोल के किरदार को देखते हुए एहसास होता है कि हम इस बारीकी को समझ सकने से कितने दूर हैं. कभी कभी किसी फिल्म, या उसके सीन, या उसके डायलाग, या उसके किसी भी छोटे से हिस्से की सबसे बड़ी उपलब्धि यही होती है कि वो हमें रुक कर बार बार उस पल में जाने को मजबूर कर दे. अनमोल के किरदार के साथ हो रही चीज़ें या तो हमारी सहानुभूति को ट्रिगर कर सकती हैं, या फिर हमारे गिल्ट को. चीज़ें इतनी ब्लैक एंड वाइट नहीं होतीं, लेकिन ये दो छोर निश्चित रूप से इस फिल्म को देखने वालों के रिएक्शन में आएंगी.
फिल्म का अंत थोड़ा सा क्लीशे की तरफ झुक सा गया है. बाकी फिल्म प्यारी है.
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